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________________ अध्यात्म चन्द्र भजनमाला अध्यात्म चन्द्र भजनमाला भजन - १०७ तर्ज - न झटको जुल्फ से पानी.... आतम मेरी है शुद्धातम, ये शाश्वत पद को पायेगी। अमर ध्रुवता को लख करके, अमर जग में हो जायेगी। १. ये ध्रुव शुद्धात्म की धारी, लखा है ज्ञान अपने में। त्रिलोकी को सुमर करके, छूटे हैं जग के सब सपने...आतम... ध्यान आतम का धर करके, की है शिवमग की तैयारी। परमातम रूप को लख लो, आतम अनुभूति है प्यारी...आतम... ३. ध्रुव सत्ता है को स्वीकारा, ज्ञान से ज्ञान को पाया। अनुभूति आत्म की लख के, ज्ञान दर्शन में चित लागा...आतम... ४. अमूरति ज्ञानमय सत्ता, अनुपम शान्ति की धारी। अविनाशी और अमोलक है, दश लक्षण धर्म की क्यारी...आतम... ५. रत्नत्रय की है मंजूषा, अखंड है ध्रुव की निज सत्ता। तीनों लोकों में अलबेली, काटे कर्मों का अब पत्ता...आतम... क्षमा की ढाल है आतम, सुखों की है महा दरिया। स्वानुभूति के रस को चख, इस भव जंजाल की हरिया...आतम.. भजन - १०८ तर्ज-जिया कब तक उलझेगा... ॐ नम: सिद्धं का मंत्र, अब हमको ध्याना है। सिद्धों की नगरी में, अब हमको जाना है | १. चौरासी लाख योनि में, कई चक्कर खाये हैं। धुव धाम की धूम मचा, अब निज में आये हैं । निष्क्रिय तू त्रिकाली है, शान्ति तेरी तुझमें । लख अरस अरूपी को, अविनाशी जो मुझमें ॥ सत् चिदानन्द चेतन, शिवपुर को जाना है... ॐ नमः.... २. अनुपम और अमूरति है, निज आत्म ज्ञान शक्ति। सिद्धोहं सिद्धोहं सिद्धोहं की भक्ति ॥ ज्ञान पुंज मेरी आतम, सर्वज्ञ स्वभावी है । दृढ़ता की धारी है, यह ममल स्वभावी है ॥ अक्षय सुख की गंगा, में डुबकी लगाना है ... ॐ नमः.... ३. निज स्वानुभूति रस में, आतम को पहिचाना। अद्भुत अखंड आतम, की प्रभुता को जाना ॥ आतम सुख का सागर, सुख को ही पायेगा । आतम अनुपम गुण लख, स्व में रम जायेगा । आतम शुद्धात्म मयी, यह हमने जाना है... ॐ नमः.... ४. आनन्द परमानन्द के, अब बजे बधाये हैं। दृग ज्ञान मयी आतम, अक्षय सुख पाये हैं । धुव तत्व शुद्धात्ममयी, अविनाशी बाना है । चैतन्य रत्नाकर को, हमने पहिचाना है ॥ ममल स्वभावी आतम का, हमें ध्यान लगाना है... ॐ नमः.... *मुक्तक उन्मुख हुये निज समाधि पर, अब आत्म समाधि लगायेंगे। अपने ही निज वैभव से, निज वैभव को दरसायेंगे। हम मरण समाधि में लीन रहें. जग से छटकारा पायेंगे। आतम-अनात्म से रहित हुए, अब मुक्ति श्री को पायेंगे। स्वाध्याय मनन चितम करके आतम को हमने जाना है। भगवान आटमा म ही है शिव नगरी को अब पामा KI Vधन यया मेस कुछ भी नहीं ये उदय जन्य कर्म कुछ भी नहीं। ये मलिन भाव अज्ञान जन्य, उनका कती भोक्ता में नहीं । VII1111111111111111111111111111111111111111111111 में स्वयं स्वयं का कता हैपर से मेरा सम्बन्ध नहीं । भव अनन्त यों ही बीत पाये, पर अब जाप को कोई कद नहीं । Vपाप विषय कषाय के कारण मन बचन काय पाल अटक रहा (मोह राग मेष में फम करके यह काल अनादि भटक रहा
SR No.009712
Book TitleAdhyatma Chandra Bhajanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakanta Deriya
PublisherSonabai Jain Ganjbasauda
Publication Year1999
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size1 MB
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