Book Title: Adhyatma Chandra Bhajanmala
Author(s): Chandrakanta Deriya
Publisher: Sonabai Jain Ganjbasauda

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Page 72
________________ आध्यात्मिक चिंतन बोध आध्यात्मिक चिंतन बोध और बैर विरोध होता है वहां नरक बन जाता है और क्रोध जब बदला लेने की भावना में बदल जाता है तब बैर बन जाता है । वस्तुत: क्रोध अचार है और बैर मुरब्बा है। जिस प्रकार अग्नि से अग्नि कभी शांत नहीं होती उसी प्रकार क्रोध से क्रोध कभी समाप्त नहीं होता, क्रोध अशांति को पैदा करता है और क्षमा धर्म, शांति का निधान है। ७०. बिनय मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है, विनम्रता सुख की सहेली है। विनय से मोक्ष का द्वार खुलता है। अहंकार जीव को पतन की ओर ले जाता है, अज्ञान से अहंकार उत्पन्न होता है, अहंकार ही संसार की जड़ है। अहंकार की मदिरा में उन्मत्त व्यक्ति दूसरे की बात नहीं सुनना चाहता, अहंकार ऐसा नशा है जिसमें उन्मत्त होकर मनुष्य माता-पिता, गुरू और धर्म की भी विनय नहीं करता उसे दूसरे के गुण भी दिखाई नहीं देते। ७१.अहंकार से विनय नष्ट होती है, विनयवान झुकता है, अहंकारी अकड़ता है। कुछ प्राप्त करने के लिये झुकना अनिवार्य है। विनय से विद्या प्राप्त होती है, विद्या से ज्ञान मिलता है और ज्ञान ही सच्चे सुख की प्राप्ति का उपाय है। अहंकार तोड़ता है, विनम्रता जोड़ती है। अहं से अधर्म और विनय से धर्म का प्रादुर्भाव होता है, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव को अनन्तानुबंधी मान होता है। सम्यकदर्शन होने पर अनन्तानुबंधी मान का अभाव और उत्तम मार्दव धर्म प्रगट होता है। ७२. मनुष्य के अहंकार पर चोट पड़ने पर क्रोध उभरकर सामने आ जाता है। धन का, पद का, वैभव का, ज्ञान का तथा अन्य कितनी ही वस्तुओं का अहंकार करके मनुष्य स्वयं पतन का मार्ग बनाता है। जो पदार्थ नष्ट हो जाने वाले हैं उनका अहंकार करना अज्ञानता है। अहंकार करके जो व्यक्ति अपने को बड़ा मानता है, वास्तव में वह सबसे छोटा होता है जो प्राणी क्रोध, अहंकार आदि मानसिक विकारों पर विजय प्राप्त कर लेता है वही संसार में श्रेष्ठ माना जाता है। अहंकार का बोझ सिर पर रखकर कोई भी जीव संसार सागर से पार नहीं हो सकता, अहंकार का त्याग ही यथार्थ जीवन है। ७३. सरलता मनुष्य की सबसे बड़ी संपत्ति है। सरल स्वभाव होना वह गुण है, जिससे मनुष्य देवता के समान माना जाता है । स्वभाव की सरलता से मनुष्य के व्यक्तित्व में निखार आता है । सरलता दैवीय संपत्ति है और कुटिलता आसुरी वृत्ति है। कुटिलता, मन, वचन, काय की अनेक रूप परिणति का नाम है अर्थात् मन में कुछ और, वचन में कुछ और, शरीर में कुछ और होता है या यह कि अंतर-बाहर समानता का न होना ही कुटिलता है। मनुष्य मन में खोटे विचार करता है, वचन में कृत्रिम मिठास रूप मायाचारी पूर्वक बोलता है और शरीर से कुछ और ही क्रिया करता है इसी विविधता को मायाचार कहते हैं। ७४. सरलता धर्म है, कुटिलता अधर्म है । कपट रूप व्यवहार करने से लोगों का विश्वास नष्ट हो जाता है। कपट रूप मायाचार करने से मित्रता का भी अभाव हो जाता है। सज्जनता की पहिचान सरलता से ही होती है। सज्जन सरल और दुर्जन कुटिल होते हैं। संसार में सभी जीवों को अपनी करनी का फल भोगना पड़ता है, इसलिये सदविचार, सदवचन और सदाचरण सम्पन्न हमारा जीवन होना चाहिये । सरलता हमारा श्रेष्ठ गुण है, इसी से जीवन में आत्म हित का मार्ग प्रशस्त होता है। ७५. सत्य से जीवन की बगिया सुगंधित होती है। निज शुद्धात्म स्वरूप के दर्शन करना ही सत्य धर्म है । असत् भाव और पर पदार्थों के ममत्व में पड़कर हम सत्य स्वरूप से परिचित नहीं हो पा रहे हैं। असत्य से जीव का पतन और सत्य से उन्नति का मार्ग बनता है। संसार में वाणी को सत्य माना जाता है। व्यवहार में सत्य बचन बोलना मनुष्य को प्रामाणिक बनाता है। निश्चय से जिसका कभी मरण नहीं होता, जो त्रिकाल विद्यमान रहता है यह अस्तित्व ही सत्य है। इस सत्य का दर्शन ही जीवन की सार्थकता का संदेश है। ७६.श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने कहा था कि जिस प्रकार मनुष्य बाह्य पदार्थों का लोभ करता है उसी प्रकार सच्चे धर्म को प्राप्त करने का लोभ करे तो जीव अनादि-अनन्त भव सागर से पार हो सकता है। धर्म ही संसार से पार होने की नौका है। क्रोध लोभ आदि विकारों का अभाव ही आत्मा की शुचिता है यही धर्म है। मानसिक विकारों से परे होकर निर्विकार स्वभाव की अनुभूति ही पवित्रता का उपाय है, यही आत्म कल्याण करने का मार्ग है। ७७. मोही को अपने हिताहित का कोई विचार नहीं रहता, अन्धा पागल बेहोश, भयभीत, चिन्तित रहता है। ७८. जो मिला है - उसका सदुपयोग करने वाला विवेकवान है। दुरूपयोग करने वाला अज्ञानी मूर्ख है। ७९. सच्चे देव गुरू धर्म की श्रद्धा, सत्संग स्वाध्याय सामायिक करना, सदाचारी जीवन होना, सम्यग्दर्शन की पात्रता है। ८०. भेदज्ञान के अभाव में ही भय-चिन्ता घबराहट होती है। ८१. जिम्मेदारी, रिश्तेदारी - दुनियादारी जिसके गले जितनी बंधी है, वह उतना चिन्तित परेशान रहेगा। ८२. चाह से चिन्ता, मोह से भय और दुःख, राग से संकल्प-विकल्प होते हैं। ८३. तीन लोक के नाथ को, नहीं स्वयं का ज्ञान । भीख मांगता फिर रहा, बना हुआ हैवान ।। ८४. ज्ञानी सम्यग्दृष्टि मुक्ति चाहता है और वह उसके सत्पुरुषार्थ से मिलती है। अज्ञानी - मिथ्यादृष्टि मन की तृप्ति चाहता है और वह कभी होती नहीं है। ८५. पाप के उदय में जीव धन के पीछे मरता है और पुण्य के उदय में विषयों में रमता है।

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