________________
आध्यात्मिक चिंतन बोध
आध्यात्मिक चिंतन बोध
कहकर जिसकी ओर संकेत करते हैं जो एक मात्र चैतन्य धन सच्चिदानन्द
स्वरूप है वही सत्स्वरूप, मैं स्वयं हूँ। २९.जिस प्रकार कपड़ों के बिना गहने बोझ मात्र हैं, वैराग्य के बिना ब्रह्म विचार व्यर्थ
है, रोगी शरीर के लिये भांति-भांति के भोग व्यर्थ हैं, आत्म श्रद्धान के बिना जप-तप कार्यकारी नहीं है, जीब के बिना सुंदर शरीर व्यर्थ है, उसी प्रकार धर्म
के बिना सारा जीवन ही व्यर्थ है। ३०. यह ज्ञान विज्ञान सब विद्याओं का राजा है, सब कलाओं में श्रेष्ठ है, अत्यंत
पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फल देने वाला, अविनाशी परम अक्षर स्वरूप है। अक्षर का अर्थ है 'न क्षरति इति अक्षरः' जिसका कभी क्षरण या क्षय नहीं होता वही अक्षर है ऐसा ज्ञान विज्ञान मयी शुद्धात्मा मैं स्वयं हूँ जो इस देह
देवालय में वास कर रहा है। ३१. श्रद्धा का अर्थ है - सच्चे देव - परमात्मा, सद्गुरू और सतशास्त्र में आदर पूर्वक प्रत्यक्ष की भांति विश्वास करना, यह विश्वास होता है अत: करण की शुद्धि से । अंत:करण की शुद्धि होती है- साधन से, और साधन होता है विश्वास से । इस प्रकार यह सभी एक दुसरे के पूरक हैं, सहायक हैं। इसलिये जिन बचनों पर श्रद्धा और विश्वास करके हमें अविलम्ब आत्म हित के साधन
में लग जाना चाहिये। ३२. आलस्य मनुष्य का महान शत्रु है, आलसी मनुष्य संसार में रहता हुआ अपने
सांसारिक कार्यों में सफल नहीं हो पाता, फिर आलसी व्यक्ति परमार्थ में किस प्रकार सफलता प्राप्त कर सकेगा ? अत: अंतर में जागो, आलस्य को त्यागो,
निज हित में लागो इसी में मनुष्य जन्म की सार्थकता है। ३३. मनुष्य से प्राय: गल्तियां हो जाती हैं, जिस मनुष्य से गल्तियां न हों वह मनुष्य
नहीं होगा बल्कि भगवान होगा और जो मनुष्य गल्लियां करके उन्हें सुधार नहीं तो वह भी मनुष्य नहीं होगा क्योंकि
जो गलती पर करे गलती उसे शैतान कहते हैं । जो गलती न समझता हो उसे हैवान कहते हैं । जो गलती कर सुधरता हो उसे इंसान कहते हैं।
जो गलती छोड़कर बैठा उसे भगवान कहते हैं । ३४. पाप रूप कार्य करने का मन में विचार करने से और रूचि पूर्वक उन भावों में रस
लेने से आत्म-बल क्षीण होता जाता है और साधना पथ से विपरीत, धर्म मार्ग से भिन्न है लक्षण जिनका ऐसे पाप भावों हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह,
कामना, बासना आदि में रस लेने से जीव धर्म मार्ग से च्यूत हो जाता है इसलिये आत्मार्थी साधक को स्वभाव की रूचि बढ़ाना चाहिये और विभावों में रस बुद्धि
का त्याग करना चाहिये। ३५. इस जगत में आत्म तत्व स्वयंभू सर्वज्ञ शुद्ध है। स्वयंभू आत्म सत्ता है जो स्वयं
से ही है, उसका होना किसी दूसरे के हाथ में नहीं, उसका अस्तित्व स्वयं में ही है। सर्वज्ञ का अर्थ है जो जानने योग्य था वह सब जान लिया और शुद्ध का अर्थ
है सदा पवित्र निर्दोष ऐसा है आत्म तत्व । ३६. अपनी कमजोरियों को मन जानता है, वह उन्नति होने के समय उन्हीं कमजोरियों
की याद दिलाता है और उन्नति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। मन, मोह-माया का ही रूप है जो साधक को भ्रमित करता है। सजग व्यक्ति का कर्तव्य है कि ज्ञान से अपनी कमजोरी को न छिपाये और मन के चक्कर से बचे तब ही
कल्याण संभव है । ३७. मैं आत्मा शरीर के बराबर हूँ, मैं आत्मा ब्रह्म स्वरूपी हूँ, मैं आत्मा कर्म मलों से
रहित हूँ, मैं आत्मा चैतन्य लक्षण वाला हूँ, मैं आत्मा अनित्य भावों से भिन्न ज्ञान स्वरूपी हूँ ऐसा निरंतर चिंतन करने से आत्मानुभूति का मार्ग प्रशस्त होता है। जो जीव स्व-पर का यथार्थ निर्णय कर वस्तु स्वरूप स्वीकार करता है वह
सम्यग्दृष्टि सच्चा पुरुषार्थी है। ३८. जो 'असत् है उसका कभी अस्तित्व नहीं है और जो 'सत्' है उसका कभी
अभाव नहीं है, अर्थात् वह सदा शाश्वत स्वभाव है। यह सत् ही परमात्मा परम ब्रह्म स्वरूप है। वस्तुत: इस सत् की उपलब्धि मानव जीवन का प्रधान ही नहीं बल्केि एकमात्र लक्ष्य है । सत् स्वरूप शुद्ध चैतन्य स्वभाव की प्राप्ति के लिए ही
यह मनुष्य भव मिला है। ३९. शरीर अनित्य है, वैभव शाश्वत नहीं है, मृत्यु दिनोंदिन निकट आ रही है, वह कब
आ जाये इसका कोई भरोसा नहीं है इसलिये पुरूषार्थ पूर्वक धर्म की आराधना में संलग्न हो जाओ। मनुष्य जन्म महान पुण्य के योग से प्राप्त हुआ है, इस अवसर को व्यर्थ न गंवाओ, जो मानव शरीर देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, देवता भी जिसको प्राप्त करने के लिए तरसते हैं वह अवसर तुम्हें सहज में प्राप्त हो गया है
इसलिए अब चूको मत,दांव लगाओ तो बेड़ा पार हो जायेगा। १०.जो जो कार्य या व्यवहार तुम दूसरों से अपने लिये चाहते हो, वैसा ही तुम दूसरों
के साथ करो और जैसा कार्य या व्यवहार तुम दूसरों से अपने लिये नहीं चाहते बैसा तुम भी दूसरों के प्रति मत करो, यही धर्म का सार है जो मानव मात्र के लिये आचरणीय है।