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आध्यात्मिक चिंतन बोध
आध्यात्मिक चिंतन बोध
यात्रा पूर्ण करता है इसी प्रकार सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र का पालन करते हुए जीव को अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की प्राप्ति होने पर वह परमात्म पद को प्राप्त करने की अपनी आध्यात्मिक यात्रा पूर्ण करता
है, निज स्वरूप में लीन होकर परमात्म पद प्राप्त कर लेता है। ११.जीव ने अपने कर्मों का जो उपार्जन किया है उसके अनुसार फल भोग रहा है,
यदि शुभ कर्म किए हैं तो वर्तमान में अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हुई हैं, जीव शांति का अनुभव कर रहा है और अशुभ कर्म किये हैं तो वर्तमान में प्रतिकूल परिस्थितियां मिली हैं तथा जीव अशांति का भोग कर रहा है। किसी जीव के कर्मों का फल कोई दूसरा जीव नहीं भोग सकता, प्रत्येक जीव स्वोपार्जित कर्मों के फल को ही भोगता है। यदि जीव दूसरे के द्वारा दिये हुए कर्मों के फल
को भोगे तो स्वयं के द्वारा किये हुए कर्म निष्फल हो जायेंगे। १२. परमात्मा के दो भेद हैं :- सकल परमात्मा और निकल परमात्मा । शरीर
सहित होने से अरिहंत भगवान सकल परमात्मा हैं और शरीर रहित होने से सिद्ध भगवान निकल परमात्मा हैं । केवल ज्ञान ऐसा परम प्रकाश रूप ज्ञान सूर्य है जिसमें सम्पूर्ण जगत दर्पण बत् प्रकाशित होता है। परमात्मा-सर्वज्ञ, सर्वदृष्टा, साक्षी हैं, कर्ता नहीं हैं, मात्र ज्ञाता-दृष्टा हैं । जीव स्वयं ही कर्म करता है, स्वयं ही उनके फल को भोगता है। जीव अपने ही सत्पुरुषार्थ के
द्वारा कर्म के बंधनों से और संसार के जन्म-मरण से मुक्त हो सकता है। १३. प्रत्येक जीव अपने भाग्य का विधाता स्वयं है, कोई किसी को सुख-दुःख देने
वाला नहीं है, समस्त जीव अपने-अपने पुण्य-पाप कर्म के अनुसार सुख-दु:ख रूप फल भोग रहे हैं। संसार के विस्तार का प्रमुख कारण अज्ञान
और मोह है। जहां तक 'मेरा-मेरा' ऐसी भावना है वहां तक मोह है, मोह के कारण ही विकार उत्पन्न होता है। राग भाव जीव को संसार में डुबाता है और विरक्ति का भाव जीव को संसार सागर से पार लगाता है। राग के समान संसार में दूसरा कोई दु:ख नहीं है और त्याग वैराग्य के समान दूसरा कोई सुख
नहीं है। १४. गृहस्थ श्रावक का जीवन एक तपोवन है, जहां रहते हुए धर्म की साधना
आराधना के बल से उसे अपना जीवन निखारना है, इस महत्वपूर्ण कार्य के लिये तीन आधार आवश्यक हैं :- सच्ची श्रद्धा, सद्विवेक और सम्यक्
आचरण । श्रावक के जीवन में आचरण, विचार, क्रिया की प्रमुखता रहती है, इस सत्य मार्ग पर चलते रहने के अभ्यास पूर्वक ही श्रावक, श्रमण बनता है। भारतीय संस्कृति में इस सम्यक् आचरण को ही धर्म कहा गया है।
१५. जिन जीवों ने अध्यात्म को स्वीकार किया उन्हें ही आत्म दर्शन हुए हैं वही
ज्ञानी परमात्म पद प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं । ज्ञानी जानता है कि जो अरूपी है और चैतन्य है वही मैं हूँ, जो स्पर्श, रस, गंध, वर्णवान है वह पुद्गल है वह अणु हो या स्कंध, वह मैं नहीं हूँ और जो अरूपी है किन्तु अचैतन्य है वह भी मैं नहीं है वे धर्म अधर्म आकाश काल भी चेतना रहित है। मैं चैतन्य तत्व
साक्षी ज्ञायक सदाकाल अबिनाशी सत्य स्वरूप हूँ। १६. निराकुल सुख और आनन्द में रहना चाहते हो तो दृश्य और दृष्टा में, ज्ञेय और
ज्ञाता में स्पष्टतया भेद करके जानों, यह एक नहीं हो सकते, इन्हें एक मानना ही अज्ञान मिथ्यात्व है। दृश्य परिवर्तनशील हैं, बदलते रहते हैं, किन्तु दृष्टा, दर्शक मात्र है वह दृश्य की तरह कभी नष्ट नहीं होता । ज्ञेय तो सम्पूर्ण लोक है किन्तु ज्ञाता, ज्ञेय रूप पर पदार्थों से सर्वथा भिन्न है। जब ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय तीनों अभेद हो जायें वहीं ध्रुब स्वभाव रूप निज भगवान का उदय होता है। इसलिये एक ही दृष्टि बनाओ।
'ध्रुव स्वरूप हूँ मैं सुख धाम, ज्ञाता-दृष्टा आतमराम' १७.धर्म चर्चा, तत्व चिंतन, आत्म साधना, सत्संगति में हमारा जितना समय
व्यतीत हुआ, उतने समय का यथार्थतया सदुपयोग हुआ जानना चाहिये और राग-द्वेष को बढ़ाने वाली व्यर्थ चर्चाओं में, कलह और खोटी संगति में जो समय व्यतीत होता है वह समय का दुरूपयोग है। इस जीवन के क्षण अत्यंत बहुमूल्य हैं, अत: एक-एक क्षण का सदुपयोग करना चाहिये, क्योंकि मनुष्य भव से ही आत्मा का उद्धार हो सकता है, अन्य गतियों में ऐसी योग्यता प्राप्त नहीं होती, इसलिये अपने आत्म कल्याण का मार्ग बना लेने में ही नर जन्म
प्राप्त करने की सार्थकता है। १८. जैसा वातावरण मिलता है, जैसे संयोग मिलते हैं, मन में उसी प्रकार के
शुभ-अशुभ भाव उत्पन्न होते हैं, उन भावों के अनुसार ही कर्म का बंध होता है। वर्तमान में जीव का पुरूषार्थ यही है कि अशुभ भावों से बचते हुए शुभ भावों में प्रवृत्त रहे, क्योंकि शुभ भावों की भूमिका में ही धर्म की प्राप्ति होती है। मानव-मन सहित संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव है, वह विवेकवान होता है, अत: प्रत्येक क्रिया विवेक पूर्वक करना चाहिये इसलिये कि शुभ भाव से पुण्यानव होता है और अशुभ भावों से पाप आस्रव होता है और शुद्ध भाव रूप निर्मल
ध्यान से मुक्ति की प्राप्ति होती है। १९.अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने से योग्यता नहीं झलकती, योग्यता-वाणी,
आचरण और व्यवहार से प्रगट होती है। जो व्यक्ति आत्म प्रशंसक होते हैं,