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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
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२६. ॐ नम: सिद्ध मंत्र जप, का ही ध्यान लगायेंगे। डूबकर अपने में हम, परमात्म पद को पायेंगे । शांत समता धारी आतम, को सदा दरसायेंगे । ज्ञान वैभव निज में लखके, वीतराग बन जायेंगे ।। क्रान्ति आई निजातम में, शंखनाद करायेंगे । शून्य बिन्दु में समाके, ज्ञान में रम जायेंगे ॥
२१. लोक मूढता को न देखा, न देखी देव मूढता । शंकादि अष्ट दोष तजके, तजी पाखंड मूढता ।। अनायतन और अष्ट मद को, भी जिन्होंने तज दिया । कर्म मल से हो रहित, चिद्रूप को ही वर लिया । ज्ञानी शुद्ध चैतन्य, के महलों में नित विचरण करे ।
और जग के सकल दोषों, का ही परिमार्जन करे ।। २२. ज्ञानी का ज्ञायक अवलम्बन, ही विशेष समाधि है। चेतन स्वरूप में लीन होवे, छूटे जग की व्याधि है । रागादि विषय कषाय से, अब दूर अपने को करो । आरम्भ परिग्रह त्याग के, अब शान्ति सुख को ही वरो । निज स्वरूप में ही विचरना, स्वयं की अनुभूति है। ज्ञानी पंडित ही हमेशा, करते स्वानुभूति है ॥ २३. देह देवालय वसे, शुद्धात्मा को जान कर । लखते रहें निज आत्मा, शुद्धात्म को पहिचान कर ॥ शुद्धात्मा का जागरण ही, भवोदधि से पार है। भव भ्रमण के अंत होने का, ये सच्चा द्वार है ॥ भव्य अब तू ज्ञान रूपी, अमृत रस का पान कर । चैतन्य रस का पान करके, मोह ममता को तू हर | २४. सद्गुरू आनन्द से, अमृतमयी वाणी पिला । भव भ्रमण का अंत करते, झांको शुद्धातम किला || धर्म का श्रद्धान और, बहुमान जागे ही सदा । आत्म के अनुभव में रहना, ही निराकुलता सदा ।। द्रव्य की स्वतंत्रता, स्वीकारना पुरूषार्थ है । निज की प्रभुता को जगाना, आत्म का परमार्थ है ॥ २५. शुद्ध चेतन ध्रुव स्वभावी की, सदा पूजा करे। शुद्ध चिदानन्द मूर्ति आतम, मुक्ति लक्ष्मी को वरे । शुद्धात्म का चिन्तन मनन, करना ही सच्चा धर्म है। शुद्धात्मा के लक्ष्य से, मिटते सभी के भर्म हैं । अन्तर में चैतन्य की, प्रभुता का श्रद्धान है । और अखंड अभेद, परमातम का सत् श्रद्धान है ॥
सतत् प्रणाम चिदानंद धुव शुद्ध आत्मा, चेतन सत्ता है भगवान । शुद्ध बुद्ध अविनाशी ज्ञायक, ब्रह्म स्वरूपी सिद्ध समान ।। निज स्वभाव में रमता जमता, रहता है अपने धुवधाम । तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।। कर्मों का क्षय हो जाता है, निज स्वभाव में रहने से । सारे भाव बिला जाते हैं, ॐ नमः के कहने से ||G शुद्ध ज्ञान दर्शन का धारी, एक मात्र है आतमराम । तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।। तीन लोक का ज्ञायक है, सर्वज्ञ स्वभावी केवलज्ञान । निज स्वभाव में लीन हो गये, बनते हैं वे ही भगवान ।। भेद ज्ञान तत्व निर्णय करके, बैठ गया जो निज धुवधाम । तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।। वस्तु स्वरूप सामने देखो, शुद्धातम का करलो ध्यान । पर पर्याय तरफ मत देखो, जो चाहो यदि निज कल्याण ॥ निज घर रहो निजानंद पाओ, पर घर होता है बदनाम | तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।।