Book Title: Adhyatma Chandra Bhajanmala
Author(s): Chandrakanta Deriya
Publisher: Sonabai Jain Ganjbasauda

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Page 62
________________ १०९ अध्यात्म चन्द्र भजनमाला अध्यात्म चन्द्र भजनमाला ११० * शुद्धातम भावना* १. मिल गया शुद्धात्म का गहना, हमारा मिल गया। छा गया शान्ति सुखों का दीप, निज पद छा गया । अमर ध्रुवता की निशानी, देख ली निज आत्म ने । शील समता को निहारा है, मेरी शुद्धात्म ने ॥ अक्षय सुख में वास, निज शुद्धात्मा मेरी करे । मोह मदिरा त्याग, मेरी आत्मा सुख को वरे ॥ २. ज्ञान का दीपक जले, अन्तर में मेरे हे प्रभो। शान्ति सख गंगा बहे. गोते लगाऊँ हे विभो ॥ तू त्रिकाली तू ही निष्क्रिय, तू अनुपम हे प्रभो। तू चिदानन्द तू ही चेतन, तू ही ज्ञायक है विभो ॥ ज्ञान दर्शन चरण का, झरना सदा बहता रहे । अनन्त गुणमयी आत्मा, प्रत्येक क्षण निज में रहे ।। ३. तू स्वयं का ही स्वयं में, तू स्वयं ज्ञानी बने । धार कर संयम की दृढ़ता, तू महाध्यानी बने । ज्ञान की सरिता हृदय में ज्ञान मय नित बह रही। संशय विमोह विभ्रम की, काली घटा अब ढह रही ॥ कर्म संयोगों से बच कर, आई मैं निज धाम में। ज्ञान की ज्योति जलाकर, जाऊँ मैं शिव धाम में । ४. आत्म आनन्द घन का पिंड, सहजानन्द है। आत्म धुवता को लखो, हो जाय परमानन्द है ॥ ज्ञान की ज्योति जले, दिन रात अंतर में प्रभो । आत्मा मेरी सहज, परमात्मा होवे प्रभो ॥ सत् चिदानन्द ज्ञान का, निज आत्मा में वास हो । प्रत्येक क्षण बढ़ता रहे, निज में ही दिव्य प्रकाश हो ॥ ५. सद्गुरू सत्संग से, शुद्धात्म की पूजा करूँ। आत्म सिन्धु में मगन हो, मैं भवोदधि से तरूँ ॥ भूमिका अनुसार ज्ञानी, परिणमन चलता रहे । आत्म साक्षी से ये ज्ञायक, ज्ञान में बहता रहे ॥ वृद्धि हो आनन्द सहजानन्द, परमानन्द की। चर्म चक्षु से अगोचर, आत्म के रसकन्द की ॥ उर कमल में आनन्द का, स्रोत अब बढ़ने लगा। विमल से होकर ममल, आनन्द अब आने लगा । रत्नत्रय मयी आत्मा, सद्भावना में नित रहे । ज्ञान और आनन्द की, सहकारिता में नित रहे । है त्रिलोकी वीतरागी, ज्ञानगुण की ग्राहिका । ज्ञान में ही नित रहे, वह है स्व-पर प्रकाशिका ॥ ७. ऐसी ही शुद्धात्मा में वास, मेरा नित रहे । ममल स्वभावी आत्म का, दरिया सदा निज में बहे ॥ ज्ञान की सिन्धु हे आतम, तुमको मेरा हो नमन । शील समता धारी आतम, तुमको हो शत्-शत् नमन ।। ज्ञानी को ही ज्ञान में से, ज्ञान का बल छा गया । ज्ञान की ही दिव्य दृष्टि, ध्रुव तत्व मन भा गया । ८. शुद्ध समता भाव से, ज्ञानी सदा ज्ञायक रहे । और अतीन्द्रिय ज्ञान में, निश्चल अटल ध्रुव में रहे । निज धर्म के ही वस्त्र पहने, रत्नत्रय आभूषण गहे । नन्द आनन्द में रमण कर, मोक्ष लक्ष्मी को वरे || वीतरागी दशा तेरी, ज्ञान मय ही नित रहे । विकल्पों का कर वमन, तू ज्ञानधारा में बहे ॥ ९. तत्समय की योग्यता, में ही सदा समभाव हो। अन्तर शोधन में सदा, तेरा ही उग्र पुरूषार्थ हो । बाह्य क्रिया में कभी, आनन्द आ सकता नहीं । अतीन्द्रिय आनन्द में, पर भाव टिक सकता नहीं । धुव अचल शुद्ध स्वभाव में ही, तू सदा गोते लगा। धुव धाम को ही ध्रुव में लखके, सर्व कर्मों को भगा ।। १०. ज्ञान में ही ज्ञान से, दिखता सतत् निज आत्मा । राग द्वेषादि विभावों का, सदा हो खात्मा ॥ रवि की ज्ञान किरण से, ही चमकते हम रहें । ज्ञान बल और ज्ञान ज्योति से, प्रकाशित हम रहें । आत्म ध्वनि को आत्मा में, ही सजगता से सुनें । और अपनी आत्मा के, अनन्त गुण को हम गुनें ॥

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