Book Title: Adhyatma Chandra Bhajanmala
Author(s): Chandrakanta Deriya
Publisher: Sonabai Jain Ganjbasauda

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Page 32
________________ अध्यात्म चन्द्र भजनमाला अध्यात्म चन्द्र भजनमाला ५० भजन - ७२ हे भवियन, तुम आनंदमयं। १. विषय भोग में क्यों रत रहता, तू चैतन्य मयं ॥ हे भवियन.... २. काल अनादि से फिरे भटकता, तू ममलं ध्रुवं ॥ हे भवियन.... ३. अब आतम की छवि निरख ले, चेयानन्द स्वयं ॥ हे भवियन.... ४. शुद्ध चेतना शक्तिधारी, अलख अनूपमयं ॥ हे भवियन.... ५. स्वानुभूति रस का तू प्याला, अमृतमयी स्वयं ॥ हे भवियन.... ६. केवलज्ञान मयी मम आतम, अक्षय अनंत सुखं ॥ हे भवियन.... भजन -७४ तर्ज-दीदी तेरा देवर... वीतरागी के चरणों में आना, मुक्ति नगरी का मैं दीवाना। पुरूषार्थ को अपने जगाना, पंचेन्द्रिय के विषयों में न आना। १. अरस है अरूपी, ये आतम हमारी। इसे छू न सकते, ये शब्दों से न्यारी ॥ किसी से भी पूछो, ये आतम है कैसी। सुखों का है दरिया, स्वानुभूति जैसी ॥ शान्ति की मूरति बनाना, अक्षय सुख का तू खजाना। वीतरागी के..... २. जन्मते और मरते, नरकों में जाते। भूख और प्यास के दु:ख सहते ॥ वहां से निकलते, पशुगति में आते । सबल निर्बल होते, भारी बोझा ढोते ॥ मुश्किल से नर जन्म पाना, शील संयममय जीवन बनाना। वीतरागी के..... ३. स्वर्गों में आये, विषयों में ललचाये । छहमास पहले, गले माला मुरझाये ॥ जिनवर को ध्याये, और अब न पछताये । निज आतम सुमरले, भव सागर तर जाये ॥ कों के बंधन को छुड़ाना, आतम ज्ञान के दीपक को जलाना। वीतरागी के..... १. २. गजल-७३ मेरी आतम की सम्पदा की बात मत पूछो। आत्म परमात्म हुई, कैसे बात मत पूछो। धर्म के नाम पर, कुरबान हुआ करते हैं। धर्म क्या चीज है, इसका न ज्ञान करते हैं। त्रिकाली आत्मा से, प्रीत हमको करना है। अतीन्द्रिय आत्मा पै, दृष्टि हमें रखना है ॥ अनन्त पुरूषार्थ का धनी, ये मेरा आतम है। स्वानुभूति में समा जाये, तो परमातम है । सुख तो अन्दर भरा है, बाह्य से सुख क्या लेना। सत् चिदानन्दमय, धुवधाम पर दृष्टि देना ॥ पर पै दृष्टि चली जाय, तो दुःख होता है। ध्रुव पै दृष्टि को जगा लूं, तो सुख होता है | *मुक्तक मोह मिथ्या की बेड़ियों को दूर करना है। सत् चिदानन्द मयी आतम में समा जाना है। गर दु:खों से बचना चाहते हो हे नर तुम। ध्रुव शुद्धात्म की दृष्टि में अब खो जाओ तुम॥ ५.

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