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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
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भजन - १४४
तर्ज - बड़ी दूर से आये.... दर्शन को पाये हैं, आतम में ही समाये हैं। तीन लोक में अविनाशी, अमर ध्रुवता को पाये हैं।
ज्ञान की ज्योति है, मिथ्या को हरती है, मिथ्या को हरने से, शिव सुख को वरती है। ये ज्योति, ये ज्योति, ये ज्योति निज में समाये हैं, अमर ध्रुवता को पाये हैं...दर्शन... २. शुद्ध दृष्टि होती है, आतम को वरती है, आतम को वरने से, भव दु:ख को हरती है। ये दृष्टि, ये दृष्टि, ये दृष्टि उर में समाये हैं, अमर ध्रुवता को पाये हैं...दर्शन... ३. चिदानन्द ज्ञायक है, कर्म का नाशक है, कर्म नश जाने से, शान्ति सुखदायक है। ये ज्ञायक, ये ज्ञायक, ये ज्ञायक मन को भाये हैं, अमर ध्रुवता को पाये हैं...दर्शन... ४. ज्ञानी जन कहते हैं, अज्ञान हरते हैं, अज्ञान हरने से, चैतन्य को भजते हैं। ज्ञानीजन, ज्ञानीजन, ज्ञानीजन ज्ञान में समाये हैं, अमर ध्रुवता को पाये हैं...दर्शन...
भजन - १४५
तर्ज - दीदी तेरा.... अब तो आतम से,आतम को ही पाना।
प्यारा चेतन है, अपने में दीवाना॥ १.मैं आतम में सोऊँ, और आतम में जागें।
और आतम से, आतम में ही मुस्कराऊँ ॥ उसी में मैं हरफूं, उसी में मैं विलकूँ । उसी आत्म ज्योति से, ज्योति जलाऊँ ॥ निज आतम में, आतम को ही ध्याना...प्यारा... २. ये कैसा आनन्द महोत्सव हुआ है।
यही अपने आप में, गहरा कुआ है ॥ इसी आत्म सागर में, गोते लगाऊँ। इसी में मैं झू, परमानन्द पाऊँ।
ज्ञान सागर में, गोते लगाना...प्यारा... ३. ये उवन उवन से, उवन आ मिला है।
यही शिव नगर का, अनुपम किला है ॥ ज्ञानानन्द ये ही, सहजानन्द ये ही। आत्मानन्द ये ही, शान्तानन्द ये ही ॥ ब्रह्मानन्द, ब्रह्म में समाना...प्यारा... ४. अनन्त गुण धारी मेरी आत्मा है ।
ये शिव सुख की, दाता ही शुद्धात्मा है ॥ है सिद्ध स्वरूपी, ये ममल स्वभावी । मोह सेना को जीत, हुआ ध्रुव अविनाशी ॥ स्वरूपानन्द में, रम जाना...प्यारा...
*मुक्तक शुद्धात्म की चर्चा सुनने से, आनन्द की सरिता बहती है। आत्मार्थी को वह रोम-रोम में हुलसित हो,
शाश्वत सुख को ही वरती है। ज्ञानी को ज्ञान की गंगा में प्रमुदित हो, नित अवगाहन करना है।
तत समय योग्यता को लख कर, स्वानुभूति से अब मुक्ति श्री को वरना है॥
★ मुक्तक भगवान आत्मा सब ही हैं, यह ज्ञान हमेशा बढ़ता है। हम सब मुक्ति के मार्ग चलें, यह ज्ञान हमेशा कहता है ॥ हे मुक्ति मार्ग के पथिक प्रभो, अब क्यों तुम देर लगाते हो। अब दृष्टि अपनी ओर करो, पर में क्यों तुम भरमाते हो ।