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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन - १४०
तर्ज-आठों कर्मों के बीच... ज्ञायक ज्ञान स्वभावी हो मेरी आत्मा. हां हां मेरी आत्मा। अजर अनुपम अविनाशी बनी परमात्मा, हां हां परमात्मा ॥ १. सिद्ध स्वरूप में सुरति जगाये, द्रव्य दृष्टि को ही प्रगटाये ॥
वो तो मोहनीय कर्म नशाये आत्मा, हां नशाये आत्मा... २. शुद्ध स्वरूप का ध्यान लगाये, ध्रुव धाम में धूम मचाये ॥
वो तो ज्ञानावरण नशाये आत्मा, हां नशाये आत्मा... ३. निर्विकल्प अनुभव हो जाये, निज सत्ता मेरे मन भाये ।।
वो तो अन्तराय कर्म नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा... ४. ज्ञान ज्योति से ज्योति जलाये, निज से ही निज को ही लखाये।
वो तो दर्शनावरण नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा... ५. सुख सत्ता का बोध कराये, ज्ञान से ज्ञान में डुबकी लगाये ॥
वो तो वेदनीय कर्म नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा... ६. आनन्दानुभूति रम जाये, केवलज्ञान को प्राप्त कराये ।।
वो तो आयु कर्म नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा... ७. अनन्तानन्त गुणों को पाये, आत्मबोध से उसे सजाये ॥
वो तो नाम कर्म नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा... ८. छोटे बड़े का भेद मिटाये, अगुरूलघुत्व नाम वह पाये ॥
वो तो गोत्र कर्म नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा...
भजन - १४१ दिख रहा दिख रहा दिख रहा रे, निज आत्मा का वैभव मुझे दिख रहा रे। लुट रहा लुट रहा लुट रहा रे,
ज्ञानामृत का खजाना यहां लुट रहा रे ॥ आतम मेरी है अविनाशी, अजर अमर है दिव्य प्रकाशी। शुद्धातम ही सत्य प्रकाशी, आतम महिमा अगम अथासी ॥ खिल रहा खिल रहा खिल रहा रे, ज्ञान सूर्य मेरा खिल रहा रे, अनन्तानन्त गुणों की धारी, समता की अद्भुत फुलवारी । शुद्ध स्वरूप की दशा है न्यारी, परमातम से करली यारी ॥ मिल गया मिल गया मिल गया रे, निज ज्ञान का दीपक हमें मिल गया रे..! तीन लोक में महिमा न्यारी, रत्नत्रय की निधि है प्यारी। त्रय कर्मों की सेना हारी, आत्म ज्ञान निज शक्ति धारी ॥ ले रहा ले रहा ले रहा रे, ज्ञान सिन्धु में डुबकी ले रहा रे... शून्य स्वभाव की छटा निराली, ध्रुव सत्ता को निज में पा ली। विषय कषायों की टूट रही जाली, मद मूढतायें भी छूटी काली॥ झर रहा झर रहा झर रहा रे, सद्ज्ञान का झरना झर रहा रे...
b *मुक्तक 'ज्ञानी तो ज्ञान में मस्त रहे, उसकी दुनियां सबसे न्यारी।। | उसके भीतर नित प्रति बहती, निज ज्ञान भाव की चिनगारी॥ I चिनगारी ही सोला बनती, जब ज्ञान समुन्दर फूट पड़े IT उस भेद ज्ञान की कणिका से, हम सिद्ध स्वरूप में आन खड़े॥1
*मुक्तक
कैसी आनन्द घड़ी कैसा ये महोत्सव है। ज्ञान वैराग्य का ही निराला उत्सव है। चारों तरफ आनन्द ही आनन्द छाया है। आत्मा के साधकों ने सम्यक्दर्शन पाया है।
वो जुल्म जो हम पर करते हैं, तब रोष हमें आ जाता है। भगवान आत्मा वह भी हैं, यह जान रोष खो जाता है। न जुल्म किसी पर कोई करे, सबकी स्वतन्त्र सत्ता न्यारी। अपने से अपने को जान अरे, अपने से ही तू कर यारी॥