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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन - १३० तर्ज-अलिन गलिन में बिखरे अमर फल... आतम मेरी सुख की धारी,ज्ञान की अदभत क्यारी हो। ज्ञान की गरिमा, ध्यान की महिमा,लगे अलौकिक क्यारी हो। १. पर में भ्रमत, बहु दिन बीते, अपने को नहिं जाना हो।
लाख चौरासी फिरे भटकते, दुःख में सुरति गंवाई हो॥ २. नरक गति में, औंधे लटके, वैतरणी में पटके हो। वहां से निकल, तिर्यंच गति बोझा भारी ढोये हो ॥ ३. ज्ञान की ज्योति, भूल के अपनी, विषयों में मन लागे हो। मुश्किल से यह नरतन पाया, सुख की आश जहां से हो । ४. इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग में, मन में धीर अब धारे हो। चिंता ये जितनी घट जायें, उतनी शान्ति समता हो । ५. कंचन कामिनी कीर्ति में पड़के, अर्ध मृतक सम काया। निज का रूप भुलाकर हमने, बाल तपस्या कीनी हो । ६. ऊपर ऊपर स्वर्ग की रिद्धि. देखत मन अति झूरे हो।
मास छह महिना माला मुरझाई, रूदन करे अति भारी हो । ७. वहां से निकल निगोद में आया, जन्म मरण अठवारा हो। पंच परावर्तन हम करके, बीत्यो काल अनादि हो । ८. अब आई यह मंगल बेला, आतम को पहिचाना हो । धुव अविनाशी ममल स्वभावी, ज्ञान का पहिने बाना हो । ९. भ्रम भ्रान्ति माया को छोड़के, शील चुनरिया ओढी हो। रत्नत्रय की ज्ञान डोर से, शिव मग की तैयारी हो ।
भजन - १३१
तर्ज-बहारो फूल बरसाओ... ज्ञान से ज्ञान को पाओ, यही परमौषधि तेरी।
ध्यान में लीन हो जाओ, मिटे जग की सभी फेरी ॥ १. ये जीवन चार दिन का है, क्षणिक में नष्ट हो जाये। ज्ञान ज्योति को धारा है, अमर पद आत्म ही पाये ।। अजर अविनाशी आतम ही, परम शुद्धात्म है मेरी...ज्ञान... २. परम ओंकार मयी आतम, पंच परमेष्ठी पद धारी। त्रिकाली में मगन होके, करी शिवपुर की तैयारी ॥ अतुल महिमा धारी आतम, अनुपम और अशरीरी...ज्ञान... ३. सिद्ध भगवन्त जैसे ही, स्वाश्रय की धनी आतम । अतीन्द्रिय ज्ञान का धारी, बनी है सिद्ध परमातम || बधाई मिल सभी गाओ, छूटी संसार की फेरी...ज्ञान... ४. आनन्द का नाथ आतम ही, स्वानुभूति का सागर है। त्रिरत्नत्रय की सरिता से, भरी समता की गागर है । जगत में श्रेष्ठ आतम ही, अष्ट कर्मों से न्यारी है...ज्ञान...
भजन - १३२
तर्ज-यूँ हसरतों के दाग.... ज्ञानी ने ज्ञान भाव को, निज में संजो लिये। निज का ही निज से, मिलन हुआ निज में हो लिये। १. आतम मेरी अमृतमयी, सुख से भरी हुई।
वो ज्ञान गुण से पूर्ण, सुख को प्राप्त हो लिये...ज्ञानी... २. मोह राग के बन्धन को, तोड़ना तुझे अभी।
कोई नहीं कुछ भी नहीं, स्वीकार हो लिये...ज्ञानी... ३. जैसे बने तैसे तुझे, सत् मानना अभी।
भ्रम भ्रान्ति और अज्ञान तज, निज में समा लिये...ज्ञानी... ४. निज आत्मा का ध्यान कर, उसमें ही तू समा। अनन्त चतुष्टय को पा, परमात्म हो लिये...ज्ञानी...
*मुक्तक कैसी ये मिथ्या भ्रान्ति कैसे ये विभाव हैं। कैसे ये संकल्प विकल्प और परभाव हैं। तोडूं इनसे नाता, जानूं ज्ञायक स्वभाव है। आत्मा से आत्मा मिले त्रिकाली ये भाव है।