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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन - ९०
तर्ज- बहुत प्यार करते....
आतम की ज्योति, जगायेंगे हम ।
आतम के ध्यान में, आतम के ध्यान में, बीते जनम ॥ आतम से जब प्रीत है जोड़ी, पुद्गल से तब प्रीत है तोड़ी। माया मिथ्या मोह को, माया मिथ्या मोह को दूर करें हम ॥
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आतम की ज्योति......
गति चारों में हम अनादि से भटके, विषयों की चाह में अब तक अटके | स्वर्ग नरक में, स्वर्ग नरक में, न भटकेंगे हम ॥
आतम की ज्योति...
आतम की है महिमा न्यारी, अतुल अखंडित ज्ञान का धारी। ज्ञान की गंगा में, ज्ञान की गंगा में, डूब जायें हम ॥
आतम की ज्योति....
भजन - ९१
तर्ज- काहे उड़ा दई चदरिया...
आतम पै कर ले नजरिया, सहज सुख बिरिया || चेतन पै जब दृष्टि करोगे, दृष्टि करोगे चेतन दृष्टि करोगे । मिल जै है मुक्ति नगरिया, सहज सुख बिरिया...आतम..... आनंदामृत पान करोगे, पान करोगे चेतन पान करोगे । शाश्वत सुख की डगरिया, सहज सुख बिरिया...आतम...
मोह राग बहु बार किया है, बार किया है बहु बार किया है। धर्म की ले लो खबरिया, सहज सुख बिरिया... आतम..... स्वानुभूति है सुख का कारण, सुख का कारण चेतन सुख का कारण । समकित की होवे परणतियाँ, सहज सुख बिरिया...आतम...
• आध्यात्मिकता मनुष्य को पलायन नहीं सिखाती हैं, बल्कि उसके अन्तर जगत को सुव्यवस्थित कर उसे कर्म की ओर प्रवृत्त करती है। तथा उसे समभाव जनित स्थायी सुख एवं शान्ति प्रदान करती है।
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
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३. सम्यक् श्रद्धा है, ज्ञान को पाया है।
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भजन - ९२
ओ हो हो हो आतम से मिलन हो गया।
ओ हो हो हो आतम शुद्धातम हो गया ॥
४.
कर्म आने लगे, आके जाने लगे।
वो तो आतम से, अब घबराने लगे,
वो तो आतम से, अब घबराने लगे ॥
ओ हो हो हो आतम से मिलन हो गया......
विषय जाने लगे, शल्य जाने लगीं । मूढ़तायें हृदय से निकलने लगीं, ओ हो हो हो आतम शुद्धातम हो गया ॥ ओ हो हो हो आतम से मिलन हो गया....
सम्यक्चारित्र हृदय में धारा है, हृदय में धारा है, ओ हो हो हो आतम, परमात्म हो गया है |
ओ हो हो हो आतम से मिलन हो गया, ओ हो हो.....
भजन- ९३
हे चेतन कब अपने में आऊँ ।
राग द्वेष नहिं पाऊँ, हे चेतन कब अपने में आऊँ ॥ अगम अगोचर ब्रह्म स्वरूपी, निज आतम को ध्याऊँ ॥ हे चेतन... अद्भुत गुणों से अलंकृत आतम, उसी में रम जाऊँ ॥ हे चेतन... शाश्वत सुख का धाम है आतम, ममल भाव अपनाऊँ ॥ हे चेतन... अजर अमर अविनाशी आतम, सुख शान्ति को पाऊँ ॥ हे चेतन...
हमारे भीतर गहरे स्तर पर आनन्द स्वरूप आत्मा है जो हमारा निज स्वरूप है। अभी मन उसकी ओर उन्मुख न होकर बाहर भटक
रहा है और सुखाभास को सुख समझ रहा है।
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