Book Title: Adhyatma Chandra Bhajanmala
Author(s): Chandrakanta Deriya
Publisher: Sonabai Jain Ganjbasauda

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ अध्यात्म चन्द्र भजनमाला अध्यात्म चन्द्र भजनमाला २८ भजन -३७ तर्ज - आया कहाँ से जाना कहाँ है.... बहिरात्मा था हुआ अन्तरात्मा, परमातम बन जाना प्यारे । परमातम बन जाना॥ १. मोह मदिरा को पीकर तूने, काल अनादि गंवाया है। विषय कषायों की संगति कर, जग में तू ठुकराया है । इनको तू छोड़, आतम को देखे, शुद्धातम बन जाना प्यारे, शुद्धातम बन जाना... बहिरात्मा.... २. वस्तु स्वरूप को समझ ले प्यारे, तत्वों की श्रद्धा करले। नव पदार्थ और छह द्रव्यों की, श्रद्धा को हिय में धर ले। आनंद का पाना, आतम का ध्याना, सहजानंद बन जाना प्यारे, सहजानंद बन जाना....बहिरात्मा... ३. पर्यायें क्रमबद्ध बदलती, इसका तू निर्णय कर ले । श्रेष्ठ यही पुरूषार्थ जगत में, इसका तू निश्चय कर ले। समकित का आना, भव से तर जाना, पूर्णानंद को पाना प्यारे, पूर्णानंद को पाना प्यारे... बहिरात्मा.... भजन -३८ तर्ज-बहारो फूल बरसाओ... श्री जिनदेव हो मेरे, शरण में तेरे आई हूँ। यही गौरव प्रभु मेरा, कि दर पे आज आई हूँ॥ १. बहुत ही देव देखे हैं, प्रभु तुझ सा नहीं देखा । न रागी है न द्वेषी है, तुझे वीतरागी ही देखा ॥ सभी को छोड़कर ही मैं, धर्म की आस लगाये हूँ, श्री जिनदेव हो मेरे.... २. चन्द्र अब मान ले कहना, तू इस दुनिया से न छलना धर्म के मार्ग पर चलना, बना समता का तू गहना ॥ धर्म सबसे अमोलक है, ये दृढ़ श्रद्धान भारी है, श्री जिनदेव हो मेरे.... ३. अनादि से पड़ी आतम, मोह मदिरा के घेरे में। मान मिथ्यात्व को तज दे, ज्ञान के शुभ सबेरे में | अतीन्द्रिय ज्ञान को पाकर, मुझे शिवपुर को वरना है। श्री जिनदेव हो मेरे.... * मुक्तक* आतम अनातम की सदा पहिचान करूँगी। परमात्म तत्व को सदा स्वीकार करूँगी। ध्यान साधना सदा निर्जन में करूँगी। टंकोत्कीर्ण ध्रुव शुद्धात्म को मैं लखा करूँगी॥ आत्म उद्यान की कैसे कहूं महिमा न्यारी। अनगिनत गुणों की जहाँ लगी क्यारी ॥ ज्ञान ज्योति से प्रकाशित हुई आतम प्यारी । वसु कर्मों की छोड़ी अब तो मैंने यारी। TAVAVAVAVA *मुक्तक भीगे अध्यात्म में, कर्मों का नाश करना है। धुव शुद्धात्म में अब हमको रमण करना है। अतुल अविनाशी अनुपम है आत्मा मेरी । जाऊँ सिद्धों के नगर मिले सुख की ढेरी ॥ ज्ञान वैराग्य की बातें सदा सिरमौर लगती हैं। विषय वासनाओं की रातें सदा आतम को छलती हैं । सत् चित् आनन्द से भर उठा है हृदय मेरा । मुक्ति को जाऊँ अभी आई सुनहरी यह बेरा ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73