Book Title: Adhyatma Chandra Bhajanmala
Author(s): Chandrakanta Deriya
Publisher: Sonabai Jain Ganjbasauda

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Page 10
________________ अध्यात्म चन्द्र भजनमाला भजन -५ तर्ज - तुम तो ठहरे परदेशी.... समकित को हमने पा लिया, मुक्ति को हम जायेंगे । वीतरागी हम बने, दूर मोह को भगायेंगे | १. अन्तर में दृष्टि है, स्वानुभूति में रमायेंगे ॥ अजर अमर अक्षय है, आतम के गुण गायेंगे...समकित... २. उत्पाद व्यय और ध्रौव्य, आतम में है भरे पड़े। अविनाशी अरस अरूप, आतम में नंत गुण रहे...समकित... ३. गुरूवर तुम हमको, अब याद आने लगे ॥ संसार दु:खों से, हम घबराने लगे...समकित... ४. आतम मेरी शुद्धातम, करूणा की सागर है ॥ चिदानंद चैतन्यमयी, शील समता की गागर है...समकित.... अध्यात्म चन्द्र भजनमाला भजन -७ हम सिद्धों की नगरी में आये हुये हैं। आतम आनन्द में समाये हुये हैं । १. जगत सारा देखा, कहीं सुख नहीं है। चिदानन्द चैतन्य में, समाये हुए हैं...हम सिद्धों.... २. ये आतम हमारी है, सिद्ध स्वरूपी। त्रि रत्नत्रय को, पाये हुये हैं...हम सिद्धों.... ३. ये सिद्ध स्वरूप है, ममल स्वभावी। त्रिकाली से लौ, हम लगाये हुये हैं...हम सिद्धों.... ४. शुद्धातम से प्रीति, मेरी हो गई है। ये कर्मावरण को हटाये हुये हैं...हम सिद्धों.... ५. ये आतम हमारी, सदा निर्विकारी। अखंड अविनाशी को, पाये हुये हैं...हम सिद्धों.... भजन -६ अतीन्द्रिय ज्ञान के धारी, गुरूवर शीघ्र आ जाओ। ये आतम ही शुद्धातम है, अलख फिर से जगा जाओ ।। १. जला दो ज्ञान का दीपक, मिटे अंधकार जीवन से । सिद्ध स्वरूप आतम का, ज्ञान ये सबको करवाओ || २. छवि वैराग्य मूरति है, आत्म हित की ये सूरति है। स्वात्मदर्शी तिमिर नाशक, आत्म का ध्यान करवाओ । ३. ये तन माटी का पुतला है, चार दिन की ये जिंदगानी। शुद्धात्म की नगरिया में, स्वात्म दर्शन करे प्राणी ।। ४. संवेदन ज्ञान के द्वारा, बना ये पूर्ण भगवन है । शुद्धातम दृष्टि को लख के, ज्ञान कण और बिखराओ । ५. गुरू के ज्ञान का संगम, सेमरखेड़ी में हम कीना। आत्मा मेरी सिद्धातम, इसी में चित्त अब दीना ॥ ६. दे दो आशीष अब गुरूवर, शून्य विंद में समा जाऊँ। ममल ध्रुव तत्व में अब तो, धूम मचा मुक्ति में पाऊँ । भजन-८ तर्ज - नगर में शोर भारी... आत्म अनुभूति कैसी है, आनन्द अनूभूति जैसी है। अमर ध्रुवता को लख लेगी, स्वानुभूति भी ऐसी है। १. आत्म के बगीचे में, आत्म को हमने पाया है ॥ उवन की झनझनाहट से, उवन में ही समाया है...आत्म.... २. अनादि से मेरी आतम, कर्म बन्धन में जकड़ी थी । राग द्वेषों में खोयी थी, विभावों को पकड़े थी...आत्म.... ३. पाया समकित को अब हमने, निशंकित अंगधारी जो ।। नहीं इच्छा कोई हमको, निकांक्षित अंगधारी है ...आत्म.... ४. निर्विचिकित्सा को पाकर के, मूढ दृष्टी को त्यागा है ।। ___ममल दृष्टि को लख करके, उपगूहन अंग पाया है...आत्म.... ५. आत्मा में रत रहने को, स्थिति अंग कहते हैं ॥ अचल अविनाशी आतम ही, वात्सल्य अंगधारी है...आत्म.... ६. मेरी आतम है परमातम, प्रभावना अंगधारी है ॥ ये शाश्वतसुख की कड़ियाँ हैं, ममल शुचिता की धारी है...आत्म....

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