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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन -९ आतम में अलख जगा लइयो,ये है सद्गुरू की वाणी।। १. आतम मेरी ध्रुव अविनाशी, सरल शांत है शिवपर वासी ॥
ज्ञान की ज्योति जगा लइयो, ये है सद्गुरू की वाणी...आतम में... २. आतम मेरी सिद्ध स्वरूपी, एक अखंड अरस और अरूपी॥
अजर अमर अविनाशी हो जइयो,ये है सद्गुरू की वाणी...आतम में... ३. मिला ये अवसर, अब मत चूको, स्वानुभूति का आनन्द लूटो॥
ज्ञानामृत प्याला पिला दइयो, ये है सद्गुरू की वाणी...आतम में... ४. विषय कषायों को अब खोकर, दर्शन ज्ञान चरणमय होकर ॥
निज सत्ता अपना लइयो, ये है सद्गुरू की वाणी...आतम में...
भजन-११ करो आतम उद्धार, दृढ़ता को चित में धारो | १. मै ज्ञायक हूँ सिद्ध स्वरूपी, निज को जानन हारा । ज्ञान स्वभाव ही ध्रुव वस्तु है, स्व पर प्रकाशक हारा ।। शिव सुख का दातार, दृढ़ता को चित में धारो... करो.... २. चेतन चिंतामणि रत्न है, निज को निज में जाने । पूर्णानन्द स्वभावी आतम, को ही वह पहिचाने || निज धुवता विचार, दृढ़ता को चित में धारो...करो.... ३. ज्ञान पुंज है मेरी आतम, है सर्वज्ञ स्वभावी । सरल शांत समता को धारे, है यह शुद्ध स्वभावी ।। ज्ञान की दिव्य धार, दृढ़ता को चित में धारो...करो....
भजन - १० शुद्धातम नगरी में आ जइयो मेरे चैतन्य राजा ।
चैतन्य राजा, मेरे चैतन्य राजा, शुद्धातम...|| आतम मेरी सिद्ध स्वरूपी, निराकार है अरस अरूपी॥ आतम में ही समा जइयो, मेरे चैतन्य राजा... शुद्धातम नगरी.... सुख सत्ता का धारी चेतन, अजर अमर अविनाशी चेतन ॥ ज्ञान की ज्योति जला लइयो, मेरे चैतन्य राजा... शुद्धातम नगरी.... ध्रुव ओंकारमयी है चेतन, आनन्द घन चितपिंड है चेतन ॥ परमानन्द मयी हो जइयो, मेरे चैतन्य राजा... शुद्धातम नगरी.... शून्य समाधि में आतम विराजे, अंतर में बजे दुन्दुभि बाजे ॥ अचिंत्य चिंतामणि को पा जइयो, मेरे चैतन्य राजा... शुद्धातम नगरी....
भजन - १२ सम्यक्दर्शन धार, ज्ञान की दृढ़ता करले।
मोह मान मिथ्या को तजके, निज को ही अब भजले । आतम शुद्धातम परमातम, को ही नित्य सुमर ले |
___ होगा जीवन सुखकार, ज्ञान की दृढ़ता करले.... २. अब तक सारा जीवन भैया, भोगों में ही बीता। सद्गुरू की अब शरण मिली, तो मैंने जग को जीता ।।
किया आतम श्रंगार, ज्ञान की दृढ़ता करले.... ३. आतम अनुभव की मैं महिमा, नित प्रति ही अब गाऊँ। दर्शन ज्ञान चरण को धर के, परमातम हो जाऊँ ॥
त्रिकाली हितकार, ज्ञान की दृढ़ता करले....
* मुक्तक* परोन्मुखी दृष्टि जब तक कर्मों का ही तब बन्धन है। स्वोन्मुखी दृष्टि होने से होते सब कर्म निकन्दन है ।। जिन धर्म की महिमा गाने से सारे ही कर्म विला जाते। ध्रुव शुद्धातम की महिमा लख वह शीघ्र मुक्ति को हैं पाते ॥
मुक्तक हे सिद्धातम शुद्धात्म प्रभो मैंने तुमको पहिचान लिया । चेतन चेतन में रमण करे शिवपुर जाने को ठान लिया । शुद्ध बुद्ध टंकोत्कीर्ण ध्रुव आतम में ही बसन्त है । ममल स्वभावी सिद्ध स्वरूपी निज आतम को ही भजना है।