Book Title: Adhyatma Chandra Bhajanmala
Author(s): Chandrakanta Deriya
Publisher: Sonabai Jain Ganjbasauda

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Page 16
________________ १७ भजन - સ્વ तर्ज मेरी आतम ने ये समझा.... आत्मा अपने में रम जा, विरह अब सहना नहीं । दृष्टि अपनी ओर कर ले, दूर अब रहना नहीं ॥ १. बोल आतम क्या खता है, हमसे जो तू दूर है। अध्यात्म चन्द्र भजनमाला बह रहा तेरा समन्दर, शांति से भरपूर है ॥ स्वानुभूति में समाये, कर्म रज उड़ते सभी... आत्मा अपने में.... २. काल अनन्ते जग में भटके, आत्मा को भूल के । ज्ञान की गठरी को देखे, माया ममता छोड़ के ॥ शील समता की चुनरिया ओढ़ ली हमने अभी... आत्मा अपने में.... ३. चेतना के साधकों की बात ही कुछ और है। · धर्म के ही शरण में है, धर्म पर ही जोर है । चन्द्र अपने में समाओ, जग में रह सकते नहीं... आत्मा अपने में ... ४. मैं तो अपने ही लिये हूँ, मुझमें मेरी आस है। मैं नहीं मेरे से बिछयूँ, यही तो उल्लास है ॥ परम पद को जल्दी पाऊँ, अपने में मिलते तभी...आत्मा अपने में... ★ मुक्तक * मुक्ति की जिसको तड़फ लगे उसको मुमुक्षु हम कहते हैं। मोह मिथ्या माया को छोड़ के जो शुद्ध ध्यान में रहते हैं । कोई नहीं कुछ भी नहीं जिनको अन्तर में दृढ़ता है। संसार के बन्धन छूट चुके अपना जीवन स्वयं जीता है । वे भूल स्वयं ही रहते हैं अपनी दुर्गति को देखो तो । संयोग में हम जैसे रहते, वैसे ही भाव संजोये तो ॥ ये मोह माया के भाव हमें, कहां से कहां को ले जाते हैं। मन चैन नहीं लेने देता, वह इधर उधर भटकाते हैं । अध्यात्म चन्द्र भजनमाला भजन तर्ज मेरी आतम ने ये समझा... १. आज आये द्वार गुरूवर, धर्म वर्षा हो रही । खिल उठे सबके हृदय, मनु रंक चिंतामणि लही ॥ मुख कमल के तेज से, समता की धारा बह रही । लीन निज में ही रहें, ममता न जिनके उर लही ॥ अंत:करण की शुचिता, इनके हृदय में बह रही । शांति की आनंद धारा, आत्म से ये कह रही ॥ चेत चेतन जाग प्यारे, जागने की है घड़ी । अब समय आया है तेरा, आई मंगल यह घड़ी ॥ आज आये...... आत्म पथ के रसिक गुरूवर, कर जोड़ के विनती करूँ। लीन मैं होऊँ स्वयं में, और भव दधि से तरूँ | दीजिये आशीष गुरूवर, सहजता में ही रहूँ । स्वानूभूति में रमण कर शिवपुरी को मैं वरूँ । आज आये..... २. १. ३. - ४. भजन ૨૭ जिया मैं तो आतम अनुभव भासी ॥ आतम आतम आतम हूँ मैं, वेदन अति अभिलाषी । आतम में नित लीन रहूँ मैं, शांति चित्त में वासी ॥ जिया मैं तो... , २. पर द्रव्यों की रूचि तोड़ के हो अब तू वनवासी। अनन्त गुणों का नाथ स्वयं है, ज्ञानी ने ये भासी ॥ जिया मैं तो... ज्ञानी ज्ञान स्वरूप में रहता, शुद्धातम अभिलाषी महा ज्ञान सुधारस चाखा, हो चैतन्य विलासी ॥ जिया मैं तो... आतम रतन अमोलक मेरा, सिद्धालय का वासी। ममल स्वभाव में रहे निरन्तर, है यह दिव्य प्रकाशी ॥ जिया मैं तो... - १८

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