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जो आत्मवादी और लोकवादी है वही कर्मवादी अर्थात् कर्मों का यर्थाथ स्वरूप जानने वाला और क्रियावादी यानी कर्मबन्ध के कारणभूत क्रिया को जानने वाला है ॥ ५ ॥ साम्प्रतं पूर्वोक्तां क्रियामात्मपरिणतिरूपां त्रिकालसंस्पर्शिना मतिज्ञानेन दर्शयितुमाह
अकरिस्सं चाहं, कारवेसुं चाहं, करओ आवि समणुण्णे
भविस्सामि ॥ ६॥ अकार्षं चाहं, अचीकरमहं, कुर्वतश्चापि समनुज्ञो भविष्यामि । सूचनात् सूत्रमिति न्यायेन भूत-वर्तमान-भविष्यत्कालाऽपेक्षाया कृत- कारिताऽनुमतिभिः नव विकल्पाः संभवन्ति । ते च मनोवाक्- कार्यश्चिन्त्यमानाः सप्तविंशतिर्भेदा भवन्तीति ॥ ६ ॥
अन्वयार्थः- अहं - में अकरिस्सं - धुं च - मने अहं - भे कारवेसुं - ४२व्युं च - तथा करओ - ४२वावाणाने आवि - ५९! भे समणुण्णे - अनुमोइन \ मा प्रकारे भविस्सामि - भविष्यमा प्रभारी ४ ४२२.
भावार्थ :- महीय. "म". ५४थी वने ॥ २९ो छ ४२j, j, અનુમોદવું આ ત્રણેના ભૂત-ભવિષ્ય-વર્તમાનકાલની અપેક્ષાયે ૯ ભેદ થઈ જાય અને मन-वयन-यानी अपेक्षा २७ मे 25 04 छ. ॥ ६॥
भावार्थ :- यहाँ 'अहं' पद से जीव का ग्रहण किया गया है। करना, कराना और अनुमोदना इन तीनों के भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल की अपेक्षा नौ भेद हो जाते हैं और मन, वचन, काया की अपेक्षा से इनके सत्ताईस भेद हो जाते हैं ॥ ६ ॥ . . अथ किमतावत्य एव क्रियाः उतान्या अपि सन्तीति, एता एवेत्याह
एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा
परिजाणियबा भवंति ॥ ७ ॥ एतावन्तः सर्वेऽपि लोके कर्मसमारम्भाः परिज्ञातव्या भवन्तीति ॥ ७ ॥
अन्वयार्थः- सव्वायंति - संपूर्ण लोगंसि - Aswi एयावंति - २02ी ४ कम्मसमारंभा - भसमारंभ३५ Bिया परिजाणियव्वा - eAqu योग्य भवंति - होय छे.
ભાવાર્થ :- ઉપરના સૂત્રમાં જે ૨૭ ક્રિયાઓ બતાવેલ છે તે ક્રિયાઓ સમસ્ત લોકમાં થાય છે. એટલે વિવેકી પુરૂષોએ આ ૨૭ સાવદ્ય ક્રિયાઓના સ્વરૂપને જાણીसभने त्या ४२वो हमे. ॥ ७॥
भावार्थ :- ऊपर छठे सूत्र में जो २७ क्रियाएँ बताई गई हैं उतनी ही क्रियाएँ समस्त लोक में होती हैं । अतः विवेकी पुरुषों को इन २७ क्रियाओं का स्वरूप जान कर इनका त्याग कर देना चाहिए ॥ ७ ॥
| श्री आचारांग सूत्र 0000000000000000000000000000( ५ )