Book Title: Acharang Sutram Pratham Shrutskandh
Author(s): Vikramsenvijay
Publisher: Bhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra

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Page 256
________________ विदायमाणा - तेभी स्वयं, स्वयंने विद्वान् सम छ भने अहमंसी त्ति - हुं ४ ५२५२ पश्रुत धुंभा प्रभार मानतो मेवो विउक्कसे - ते अभिमान ४३ छ. तभी उदासीणे - २।ग-द्वेष २हित ५३षीने फरुसं - टुपयन वयंति - ४ छ. तेभ. पलियं - साधुन। पूयि२९ने मतावाने पकत्थे - निहारे छ. अदुवा - अथवा अतहेहिं - मिथ्या मोटर होषोन द्वा२पकत्थे - निहारे थे, परंतु मेहावी - साधुनी माहामा २८ बुद्धिमान साधु तं वा - ते शुभाशुभने अथवा धम्मं - श्रुत-यारित्र३५ धभने जाणिज्जा - सारी शत. . ભાવાર્થ - કેટલાક પુરૂષો સંયમ સ્વીકાર કરીને પછી ફરીથી વિષયભોગમાં આસક્ત બનીને અસંયમી જીવન ધારણ કરી લે છે, આવા પુરૂષોનું સંયમ સ્વીકાર કરવું નિરર્થક છે. કારણ કે તેઓને જન્મ-મરણના ચક્રથી છૂટકારો થઈ શકતો નથી. તે સ્વયંને વિદ્વાનું માનતો એવો મહાપુરૂષોની નિંદા કરે છે અને તેઓના ઉપર મિથ્યા ફોગટ-ખોટા દોષારોપણ કરવામાં પણ જરાય હિચકીચાટ થતો નથી, જેથી બુદ્ધિમાનું સાધુઓએ વિચારવું કે ઉપરોક્ત કાર્યોથી અલગ રહેતો એવો સાધુ શ્રત – ચારિત્રરૂપ धभर्नु सारी शत पालन ३. ॥ ११ ॥ भावार्थः- कितनेक पुरुष संयम स्वीकार करके फिर विषयभोगों में गृद्ध बन कर असंयम जीवन धारण कर लेते हैं । ऐसे पुरुषों का संयम स्वीकार करना निरर्थक है क्योंकि उनका जन्म मरण के चक्र से छुटकारा हो नहीं सकता। वे अपने.आपको विद्वान् मानते हुए महापुरुषों की निन्दा करते हैं और उनके ऊपर मिथ्या दोषारोपण करने से भी नहीं हिचकते हैं । अतः बुद्धिमान् साधु को चाहिए कि वह उपरोक्त कार्यों से अलग रहता हुआ श्रुत-चारित्र रूप धर्म का भली भांति पालन करे ॥१९१॥ ___सोऽसभ्यवादप्रवृत्तो बालो गुर्वादिना यथानुशास्यते तथा दर्शयितुमाह - अहम्मट्ठी तुमं सि णाम बाले आरंभट्ठी अणुवयमाणे, हण पाणे घायमाणे हणओ यावि समणुजाणमाणे, घोरे धम्मे, उदीरिए उवेहइ णं अणाणाए, एस विसण्ण वियद्दे वियाहिए त्ति बेमि ॥ १९२ ॥ अधर्मार्थी त्वमसि नाम बालो यत आरम्भार्थी यतः अनुवदन, तद्यथा - जहि प्राणिनोऽपरैरेवं घातयन हनतश्चापि समनुजानन् किंच - एवं ब्रवीसि त्वं, तद्यथा - घोरो धर्म उदीरितः - प्रतिपादित इत्येवमध्यवसायी भवांस्तमनुष्ठानत उपेक्षते । अनाज्ञया प्रवृत्त एष बालो विषण्णः कामभोगेषु, वितर्दः - हिंसकः संयमे वा प्रतिकूलो व्याख्यात इति ब्रवीमि - त्वं मेधावी धर्म जानीया इति ॥ १९२ ॥ श्री आचारांग सूत्र 0000000000000000000000000000(२३३

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