Book Title: Acharang Sutram Pratham Shrutskandh
Author(s): Vikramsenvijay
Publisher: Bhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra

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Page 354
________________ ઠંડી નિવારણાર્થે કાંબળ આદિની યાચના કરે અને પવનરહિત સ્થાનમાં આશ્રય લે છે. તથા કેટલાક તો લાકડા બાળીને ઠંડીથી નિવૃત્તિ મેળવે છે. ઠંડા સ્પર્શની પીડા ઘણી દુસહ-દુઃખે કરીને સહન થાય છે એટલે તે લોકો આ પ્રમાણે કરે છે ૧૩ ૧૪ / તે શિશિર ઠંડી ઋતુમાં પ્રભુ મહાવીરસ્વામી સમભાવપૂર્વક શીતસ્પર્શને સહન કરે છે. તેઓ આ પ્રમાણે ઈચ્છા પણ નથી કરતા કે મને પવન રહિત નિવાસ મળે, ક્યારેક ક્યારેક રાત્રિના સમયે પ્રભુ જે નિવાસ સ્થાનમાં રહેલા છે ત્યાંથી બહાર નિકળી થોડો સમય બહાર પસાર કરી પાછા અંદર આવી શીતસ્પર્શને સમભાવપૂર્વક સહન કરતા એવા ધ્યાનમાં ઉભા રહે છે // ૧૫ // પ્રભુ મહાવીરે પૂર્વોક્ત પ્રકારે આચરણ કરેલ હતું, એટલે બીજા મોક્ષાર્થી પુરૂષોએ પણ તેઓનું અનુકરણ કરવું જોઈએ. આ પ્રમાણે શ્રી સુધર્માસ્વામી સ્વયંના शिष्य स्वामीने ४ छे ।। १६॥ भावार्थः- श्रमण भगवान महावीर स्वामी सदा पांच समितियों से युक्त रहते हुए अनेक प्रकार के परीषहों को सहन करते थे। वे अधिक नहीं बोलते थे और संयम में अरति और असंयम में रति को हटा कर विचरते थे ॥१०॥ भगवान महावीर स्वामी एक पक्ष अधिक साढ़े बारह वर्ष तक अकेले विचरे थे। उस समय जब वे सूने घर आदि में ठहरते थे तब रात्रि के समय परस्त्री लम्पट जार आदि आकर उनसे पूछते थे कि “तू कौन है ? कहाँ का है ? यहां क्यों ठहरा हुआ है ?" किन्तु भगवान् कुछ भी उत्तर नहीं देते थे। तब वे अज्ञानी क्रोधित होकर भगवान् को पीटते थे । भगवान् इन सब परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करते थे किन्तु बदला लेने की कभी इच्छा नहीं करते थे ॥११॥. . जब भगवान् सूने घर में ठहरते थे तब परस्त्री लम्पट जार आदि पुरुष आकर पूछते थे कि इस मकान के अन्दर यह कौन है ? यह सुन कर भगवान् प्रायः मौन ही रहते थे परन्तु किसी समय भारी अनर्थ को दूर करने के लिए वे सिर्फ इतना कह देते थे कि "मैं भिक्षु हूँ"। यदि वे अज्ञानी क्रोधित होकर,मार पीट आदि करते तो परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करते थे और सदा शुभ ध्यान में तल्लीन रहते थे ॥१२॥ शिशिर ऋतु में साधारण व्यक्ति शीत से कांपने लगते और अन्यतीर्थिक साधु शीत निवारण के लिए कम्बल आदि की याचना करते और पवन रहित स्थान का आश्रय लेते तथा कितनेक तो लकड़ी जला कर शीत की निवृत्ति करते हैं । शीत स्पर्श की पीड़ा बड़ी दुःसह होती है इसलिए वे लोग ऐसा करते हैं किन्तु उस शिशिर ऋतु में भगवान् महावीर स्वामी समभाव पूर्वक शीत स्पर्श को सहन करते थे । वे यह इच्छा भी नहीं करते थे कि मुझे पवन रहित स्थान मिले । कभी कभी रात्रि के समय भगवान् अपने ठहरे हुए स्थान से बाहर निकल कर शीत स्पर्श को समभाव पूर्वक सहन करते हुए ध्यानस्थ खड़े रहते थे ॥१३ से १५॥ . भगवान् महावीर स्वामी ने पूर्वोक्त प्रकार से आचरण किया था। इसलिए दूसरे मोक्षार्थी पुरुषों को भी उनका अनुकरण करना चाहिए । ऐसा श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं ॥१६॥ श्री आचारांग सूत्र 096%96%2010000000000000000190/90%999(३३१)

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