Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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प्रमादवश अपने स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान-हिंसा आदि में गई हुई आत्मा का लौटकर अपने स्थान-आत्मगुणों में आ जाना 'प्रतिक्रमण' है तथा क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में गई हुई आत्मा का पुन: मूल भाव में आ जाना 'प्रतिक्रमण' है। 17. विनय बिन विद्या
विणया हीआ विज्जा, दिति फलं इह परे अ लोगम्मि। न फलंति विणया हीणा, सस्साणि व तोयहीणाणि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 267]
एवं भाग 6 पृ. 1089
- बृह. भाष्य 5203 विनयपूर्वक पढ़ी गई विद्या, लोक-परलोक में सर्वत्र फलवती होती है । विनयहीन विद्या उसीप्रकार निष्फल होती है, जिसप्रकार जल के बिना धान्य की खेती। 18. मन्त्र-सिद्धि आयरिय नमुक्कारेण, विज्जामंता य सिझंति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 267]
- आवश्यक नियुक्ति 2010 आचार्य भगवन्त को नमस्कार करने से विद्या-मंत्र सिद्ध होते हैं। 19. भक्ति से कर्मक्षय भत्तीइ जिनवराणं खिज्जंती पुव्वसंचिआ कम्मा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 267]
- आवश्यक नियुक्ति 24110 श्री जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति से पूर्व संचित कर्म क्षय होते हैं । 20. प्रतिक्रमण क्यों ?
पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे य पडिक्कमणं । असद्दहणे य तहा, विवरीय परुवणाए य ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 271] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 61