Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1381 ] ज्ञानसार 17/5
यदि ज्ञान-दृष्टि रूपी मयूरी, मन रूपी बगीचे में क्रीड़ा करती है तो आनन्द रूपी बावनाचंदन वृक्ष पर भयरूपी सर्प लिपटे नहीं रहते । 377. भवसागर से भयभीत
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यस्य गम्भीरमध्यस्याऽज्ञानवज्रमयं तलम् । रुद्धा व्यसनशैलौघैः पन्थानो यत्र दुर्गमाः || पातालकलशा यत्र, भृतास्तृष्णामहानिलैः । कषायाश्चित्तसंकल्पवेलावृद्धि वितन्वते ॥ स्मरौर्वाग्नि ज्वलत्यन्त र्यत्र स्नेहेन्धनः सदा । यो घोररोगशोकादिमत्स्यकच्छपसंकुलः ॥ दुर्बुद्धिमत्सर द्रोहैविद्युद्दुर्वात गर्जितैः । यत्र सांय्यात्रिका लोकाः पतन्त्युत्पातसङ्कटे ॥ ज्ञानी तस्माद् भवाम्भोधेर्नित्योद्विग्नोऽति दारुणात् । तस्य सन्तरणोपायं सर्वयत्नेन कांक्षति ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1479] STAR 22/1-2-3-4-5
जिसका मध्यभाग गंभीर है, जिसका ( भवसमुद्र का) पेंदा (तलभाग) अज्ञान रूपी वज्र से बना हुआ है, जहाँ संकट और अनिष्ट रूपी पर्वतमालाओं से घिरे दुर्गम मार्ग है, जहाँ (संसार - समुद्र में) तृष्णा स्वरूप प्रचण्ड वायु से युक्त पाताल कलश रूपी चार कषाय, मन के संकल्प रूपी ज्वारभाटे को अधिकाधिक विस्तीर्ण करते हैं, जिसके मध्य में हमेशा स्नेह स्वरूप इंधन से कामरूप वडवानल प्रज्वलित है और जो भयानक रोगशोकादि मत्स्य और कछुओं से भरा पड़ा है, दुर्बुद्धि, ईर्ष्या और द्रोह-स्वरूप बिजली, तूफान और गर्जन से जहाँ समुद्री व्यापारी तूफान रूपी संकट में पड़ते हैं, ऐसे भीषण संसार-समुद्र से भयभीत ज्ञानी पुरुष उससे पार उतरने के प्रयत्नों की इच्छा रखते हैं ।
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 157
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