Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
View full book text
________________
236. पापकर्म का बन्ध नहीं
सव्वभूयऽप्पभूयस्स सम्मं भूयाई पासओ । पिहियासवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधई ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1190]
- दशवैकालिक 4/32 जो सब जीवों को अपने ही समान मानता है, जो अपने-पराये को समानदृष्टि से देखता है, जिसने सब आश्रवों का निरोध कर लिया है और जो चंचल इन्द्रियों का दमन कर चुका है, उसे पाप कर्म का बंध नहीं होता। 237. संयम जीवाऽजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहिइ संजमं ?
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1190]
- दशवकालिक 435 जो न जीव (चैतन्य) को जानता है और न अजीव (जड़) को, वह संयम को कैसे जान पाएगा ? 238. श्रेयस्कर आचरण जं छेयं तं समायरे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1190 |
- दशवैकालिक 4/34 जो श्रेयस्कर (हितकर) हो, उसीका अनुसरण करना चाहिए । 239. श्रेयस्कर ग्राह्य
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयपि जाणइ सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1190 |
- दशवैकालिक 4/34 व्यक्ति सुनकर ही कल्याण को जानता है और सुनकर ही पाप को जानता है । कल्याण और पाप दोनों को सुनकर ही मनुष्य जान पाता है । तत्पश्चात् उनमें से जो श्रेयस्कर है, उसका आचरण करता है ।
... अभिधान राजेन्द्र कोप में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 122