Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
View full book text
________________
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5. पृ. 487]
- उत्तराध्ययन 32/22 चक्षु का विषय रूप है । जो रूप राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है।' जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों में समान रहता है; वहीं वीतराग होता है। 61. मनोनिग्रह
जे इंदियाणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 487] - - उत्तराध्ययन 3221
इन्द्रियों के सुमनोज्ञ विषयों में मन को कभी भी संलग्न न करें। 62. रूप में अतृप्त
रूवे अत्तित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहूिँ। अतुट्ठिदोसेणं दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 488-489]
- उत्तराध्ययन 32/29 जो रूप में अतृप्त होता है, उसकी आसक्ति बढ़ती ही जाती हैं । इसलिए उसे संतोष नहीं होता। असंतोष के दोष से दुःखित होकर वह दूसरे की सुंदर वस्तुओं को लोभी बनकर चुरा लेता है। 63. माया-मृषा मायामसं वड्ढइ लोभदोसा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 489-490]
- उत्तराध्ययन 32/30-43 लोभ के दोष से मनुष्य का माया सहित झूठ बढ़ता है ।
64. चोरी
लोभाविले आययई अदत्तं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 489]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 72