Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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198. ज्ञानदृष्टि, गारूड़ी मंत्रवत्
जागर्ति ज्ञानदृष्टिश्चेत्, तृष्णा-कृष्णाहि जागुली । पूर्णानन्दस्य तत् किं स्याद्, दैन्यवृश्चिकवेदना ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 991]
- ज्ञानसार 14 जब तृष्णा रूपी काले सर्प के विष को नष्ट करनेवाली गारूडी मन्त्र के समान ज्ञानदृष्टि खुलती है, तब दीनता रूपी बिच्छू की पीड़ा कैसे हो सकती है ? 199. पूर्णता की प्रभा
पूर्णता या परोपाधेः सा याचित कमण्डनम् । या तु स्वाभाविकी सैव, जात्यरत्नविभानिभा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 991]
- ज्ञानसार 12 परायी वस्तु के निमित्त से प्राप्त पूर्णता, किसी से उधार मांगकर लाये गए आभूषण के समान है, जबकि वास्तविक पूर्णता अमूल्य रत्न की चकाचौंध कर देनेवाली अलौकिक कान्ति के समान है। 200. पुण्यानुबन्धी पुण्य-हेतु
दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद् गुरुपूजनम् । विशुद्धाशीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 993 |
- हारिभद्रीय अष्टक 24/8 सब प्राणियों पर दया, वैराग्य, विधिपूर्वक गुरु की सेवा एवं अहिंसा आदि व्रतों का निर्दोष पालन-ये सब पुण्यानुबन्धी पुण्य के कारण हैं । 201. विरले हैं गुणी गुणानुरागी
ना गुणी गुणिनं वेत्ति, गुणी गुणीषु मत्सरी । गुणी गुणानुरागी च, विरलः सरलोजनः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग.5 पृ. 116 | अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 108