Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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मानव को शुभ या अशुभ जो भी फल प्राप्त होता है वह नियति (भाग्य) के बल का ही आश्रयी फल समझना चाहिए। प्राणियों के महान् प्रयत्न करने पर भी जो भवितव्य नहीं है, वह होगा नहीं एवं जो भवितव्यता है, होनेवाला है वह टल नहीं सकता । जो होनेवाला है, उसका कभी नाश सम्भव नहीं । वह अवश्य ही होगा। 188. पाप से अलिप्त कौन ?
यस्य बुद्धि न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पङ्केन, नासौ पापेन लिप्यते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 953]
- ज्ञानसार 43 जिनकी बुद्धि निर्लिप्त हैं। जो विषयों से लिप्त नहीं हैं, जो जितेन्द्रिय हैं, जो काम, क्रोध, मोहादि कषायों से परे हैं, स्थितप्रज्ञ हैं, वे संसार का संहार करने पर भी पाप से लिप्त नहीं होते । यथा-आकाश कभी कीचड़ से लिप्त नहीं होता । भले ही वह जल की एक बूंद में भासमान आकाश हो या संपूर्ण जलाशय में भासमान आकाश हो; उसीप्रकार अनासक्त आत्मा भी कभी पाप लिप्त नहीं होता। 189. अशरण भावना
इह खलु ! नाइ संजोगा नो ताणाए वा, नो सरणाए वा । पुरिसे वा एगया पुट्वि नाइ संजोगो विप्पजहइ । नाइ संजोगा वा एगया पुव्वि पुरिसं विप्पजहंति । सेकिमंग!पुणवयं अन्नमन्नेहिं नाइसंजोगे हिं मुच्छामो ?
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 956] - - सूत्रकृतांग 24/13
इस संसार में ज्ञाति-स्वजनों के संयोग भी दु:खों से रक्षा करने वाले नहीं हैं। कभी पहले ही पुरुष इन्हें छोड़कर चल देता है एवं कभी ये पुरुष को छोड़ चलते हैं। फिर अपने से भिन्न-इन ज्ञाति-संयोगों में हम मूर्च्छित क्यों हो रहे हैं ?
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 105