Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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57. काम-विजय
एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासागर मुत्तरित्ता, नदी भवे अवि गंगासमाणा ॥ .
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 486]
- उत्तराध्ययन 3218 जो मनुष्य स्त्री-विषयक आसक्तियों का पार पा जाता है उसके लिए शेष समस्त आसक्तियाँ वैसे ही सुगम हो जाती हैं। जैसे महासागर को पार पा जानेवाले के लिए गंगा जैसी महानदी को पार करना आसाना होता है। 58. राग-द्वेष के हेतु
रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 487]
- उत्तराध्ययन 32/23 .. मनोज्ञ शब्दादि राग के हेतु होते हैं और अमनोज्ञ द्वेष के हेतु । 59. रूपासक्ति
रूवेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे, आलोगलोले समुवेइ मच्चु ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 487]
- उत्तराध्ययन 32/24 रूप के मोह में तीव्र अनुरक्ति रखनेवाला प्राणी असमय में विनाश के गर्त में जा गिरता है। जैसे-दीपक की चमकती लौ के राग में आतुर बना पतंगा मृत्यु को प्राप्त होता है। 60. रूप-वीतराग
चक्खुस्स रुवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो उजो तेसु स वीयरागो॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5.71