Book Title: Aavashyak Digdarshan Author(s): Amarchand Maharaj Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 9
________________ मानव जीवन का महत्त्व सूर्य पर घोर शब्द होने से पृथ्वी पर वह चौदह वर्ष बाद सुनाई पडता ।" -सौर परिवार, ५ वाँ अध्याय अकेले सूर्य के सम्बन्ध में ही यह वात नहीं है। वैज्ञानिक और भी बहुत से दिव्य लोक स्वीकार करते हैं और उन सबकी दूरी की कल्पना चक्कर में डाल देने वाली है। वज्ञानिक प्रकाश की गति प्रति सेकिण्ड--- मिनट भी नही-१, ८६००० मील मानते हैं। हॉ, तो वैज्ञानिकों के कुछ दिव्य लोक इतनी दूरी पर हैं कि वहाँ से प्रकाश जैसे शीघ्र-गामी दूत को भी पृथ्वी तक उतरने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। अब मैं इस सम्बन्ध में अधिक कुछ न कहूँगा । जिस सम्बन्ध में मुझे कुछ कहना है, उसकी काफी लम्बी चौडी भूमिका बंध चुकी है। आइए, इस महाविश्व मे अब मनुष्य की खोज करें । यह विराट् संसार जीवों से ठसाठस भरा हुआ है । जहाँ देखते हैं, वहाँ जीव ही जीव दृष्टिगोचर होते हैं । भूमण्डल पर कीडे-मकोडे, बिच्छूसॉप, गधे-घोडे आदि विभिन्न आकृति एवं रंग रूपो में कितने कोटि प्राणी चक्कर काट रहे हैं । समुद्रों में कच्छ मच्छ, मगर, घडियाल आदि कितने जलचर जीव अपनी संहार लीला में लगे हुए हैं। आकाश में भी कितने कोटि रंग-विरगे पक्षीगण उडान भर रहे हैं। इनके अतिरिक्त वे असंख्य सूक्ष्म जीव भी हैं, जो वैज्ञानिक भाषा में कीटाणु के नाम से जाने गए हैं, जिनको हमारी ये स्थूल ऑखे स्वतन्त्र रूप में देख भी नही सकती। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु में असख्य जीवों का एक विराट संसार सोया पडा है। पानी की एक नन्ही सी बूद असंख्य जलकाय जीवों का विश्राम स्थल है । पृथ्वी का एक छोटा-सा रजकण असंख्य पृथ्वीकायिक जीवो का पिंड है। अग्नि और वायु के सूक्ष्म से सूक्ष्म कण भी इसी प्रकार असंख्य जीवराशि से समाविष्ट हैं । वनस्पति काय के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ? वहाँ तो पनक (काई) आदि निगोद में अनन्त जीवों का संसार मनुष्य के एक श्वास लेने जैसे क्षुद्रकाल में कुछ अधिक सत्तरह बार जन्म, जरा और मरण का खेलPage Navigation
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