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है वह सूर्यदेव या सूर्य के इन्द्रदेव का नहीं है जैसा कि हिन्दु धर्मशास्त्रों में माना गया है, वह उचित नहीं है । सूर्य विमान में जो पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय पार्थिव जीव होते हैं उनकी जो आतप नाम कर्म की कर्म प्रकृति विशेष है । उसका प्रकाश यही धूप-ताप है-यह उसीकी गरमी है । अग्निकायिक जीवों को आतप नाम कर्म का उदय न होने से उनमें यह बात नहीं घटती है । अग्नि में उष्णस्पर्श तथा रक्तवर्ण नामक प्रकृति से उष्णता है । चन्द्र-ग्रह तारादि का प्रकाश
अणुसिण-पयासरुवं, जिअंगमुज्जोअए इहुज्जोआ। .
जइ-देवुत्तर-विक्कीअ-जोइस-खज्जोअमाइव्व ।। जैसा सूर्य के प्रकाश के विषय में विचार किया है उससे सर्वथा विपरीत चन्द्र-ग्रह-नक्षत्र-तारादि का प्रकाश है। इस विषय में प्रथम “कर्मविपाक” नामक कर्मग्रन्थ में उपरोक्त गाथा में कहा है कि...अणुसिण = अनुष्ण अर्थात् गरम नहीं... यह विशिष्ट प्रकार की उद्योत नाम कर्म की प्रत्येक प्रकृति में से है । ऐसे ८ प्रकारकी प्रत्येक प्रकृतियाँ हैं । इस प्रकृति के विशेष उदय के कारण देवताओं, मुनियों के उत्तर वैक्रिय शरीर, चन्द्र, ग्रह-नक्षत्र और ताराओं के विमान में उत्पन्न पृथ्वीकायिक पार्थिव जीवों को खद्योत-जुगनू, मणि, रत्न तथा औषधि विशेषों में भी इस प्रकार की उद्योत नाम कर्म की प्रकृति का उदय होता है । इस प्रकृति से उनके अन्दर एक प्रकार का प्रकाश-उद्योत होता है। वह प्रकाश उष्ण नहीं अनुष्ण होता है । उससे शीतलता का अनुभव होता है । वैसा प्रकाश चन्द्र-ग्रह-नक्षत्र तथा ताराओं के विमान में उत्पन्न पृथ्वीकाय के एकेन्द्रिय पार्थिव जीवों का है जो किरणों के माध्यम से सर्वत्र प्रसारित होता है। ये स्फटिकमय है। अतः चन्द्र का कोई इन्द्र देवादि ऐसा प्रकाश फैलाता है इत्यादि बातें निरर्थक हैं । ज्योतिषी विमान स्फटिकमय होते हैं।
ये ज्योतिषी देवता ज्यादा से ज्यादा ७ हाथ की शरीर की ऊंचाईवाले होते हैं और जब उत्तर वैक्रिय शरीर बनाते हैं तब तो १ लाख योजन ऊँचा लम्बा शरीर भी निर्माण कर सकते हैं। और संकुचित करके अंगुल के असंख्यातवें भाग के जितना छोटा भी बना सकते हैं । वैसे ही अन्य जाती के देवताओं के लिए भी यह नियम लागू होता है । उत्पात विरह काल अर्थात् एक देवता के जन्म के बाद दूसरे देवता के जन्म के बीच का अन्तर काल ज्यादा से ज्यादा २४ मुहूर्त का बताया गया है । (१ दिन + .रात ३० मूहूर्त प्रमाण होता है) अर्थात् इतने २४ मुहूर्त के अन्तर काल में कोई न कोई जीव मनुष्य या तिर्यंच
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आध्यात्मिक विकास यात्रा