Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 349
________________ हुआ पाप में मजा - पाप में सुख मानता हुआ... क्रमशः विनाश के अन्तिम सोपान तक पहुँच जाता है । जैसे इक्काई राठोड का जीव भयंकर पापों को करता हुआ... सातवीं नरक तक ... फिर एकेन्द्रिय तक भी नीचे गिरता जाता है। ये जीव ऐसे ही होते हैं । I 1 तीसरे प्रकार के जीव विकास के सोपान पर आकर खडे हैं... लेकिन विकास की प्रक्रिया की पद्धति को देखकर ... वह डर जाता है । उत्साह का अभाव रहता है । सर्वथा क्षपक श्रेणि पर चढने की हिम्मत नहीं है । पुरुषार्थ की प्रबलता का अभाव है। बस जिस पहले सोपान पर चढा वहीं रुककर बैठ गया.. वहीं बैठा जरूर है लेकिन आगे नहीं बढ रहा है । इसमें सम्यग् ज्ञान की कमी पडती है । वीर्योल्लास की कमी उसे सताती है । चौथे प्रकार का जीव बडा ही विचित्र है । वह भी न तो आगे बढता है और न ही विनाश की तरफ नीचे गिरता है । आगे बढने का लक्ष्य ही नहीं है । भावना भी नहीं है और ज्ञान भी नहीं है । रुचि भी नहीं है लेकिन बार बार पतन के गर्त में नीचे गिरकर ... भारी दुःख भोगकर बहुत दुःखी हो चुका है अतः दुःख से डरकर पाप की प्रवृत्ति करने में आगे नहीं बढता है लेकिन मन में से जड मूल में से पापेच्छा नहीं जाती है। विचारों में पाप पड़ा है । पूर्व में अनेक बार किये हुए पापकर्मों के संस्कार बहुत भारी पडे हैं । एक महिला २-३ बार प्रसूति की पीडा का अनुभव कर चुकने के बाद अब मन में सोचती है कि पति सहवास से मैं बचकर दूर रहूँगी । लेकिन मन में तो वासना सताती है । कामेच्छा प्रबल होने के कारण वह अपने मन को नहीं संभाल पाती है। फिर भी डरती डरती अपने आप को बचाने की कोशिश करती है। वैसे ही पाप के पूर्व संस्कारों के उदय की प्रबलता के कारण बडा भारी द्वन्द्व खडा होता है । लेकिन बहुत दुःखों को भोगकर व्याकुल हो चुका है अतः उस सजा से डरता है । इसलिए अब वापिस ज्यादा पाप करके पतन के गर्त में गिरना पसंद नहीं करता है फिर भी वही बैठा रहता है । 1 संसार में कई जीव ऐसे होते हैं जो पाप की प्रवृत्ति में भी मजा मानते हैं । पाप करने से सुखी होते हैं, सुख मिलता है, बहुत ही अच्छा मजा आता है ऐसा वे मानते हैं । जब ज्ञान अल्प होता है, क्षणिक होता है, पूर्वापर का भावि के परिणामों का विचार करने की शक्ती नहीं होती है तब ज्ञान मात्र... वर्तमानकालीन ही शेष बचता है। बस फिर उसी क्षणिक वर्तमान कालीन ज्ञान से इच्छा पूरी करने हेतु जीव वैसा पाप कर देता है। परिणाम का विचार ही नहीं करता है । यही दुःखद अवस्था है 1 1 २८८ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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