Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 493
________________ सामनेवाली व्यक्ती सम्यक्त्वी है या मिथ्यात्वी है ? इसका अच्छी तरह ख्याल आता है । व्यक्ति को पहचानने की परखबुद्धि प्राप्त होती है । यदि सामनेवाला मिथ्यात्वी है तो उससे बचकर दूर रहना अच्छा है । बहुत फायदे की बात है । मिथ्यात्वी की संगत में बैठने से, उसके विचारों को सुनने से, उसकी कुतर्कों की जाल में फसने से हमारे विचार मलिन हो जाएंगे। और जैसे एक सडा हुआ आम दूसरे आम को भी बिगाडता है वैसे ही एक मलिन खराब विचार-मिथ्यात्व का गंदा हल्का विचार सम्यग् श्रद्धा के दूसरे अनेक विचारों को मलिन करने लगता है । बिगाड देता है । परिणामस्वरूप श्रद्धा के शिखर पर से सम्यक्त्वी का पतन होता है । अतः ऐसे घातक विचारवाले मिथ्यामति से लाखों कोस दूर ही रहना श्रेयस्कर है। संभाव्य ५ अतिचार श्रावक जीवन के व्रतों का स्वरूप वर्णन करने वाला वंदित्तु सूत्र है । जिसमें सम्यक्त्व के विषय में ५ अतिचार बताए हैं । वे इस प्रकार हैं संका-कंख-विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु। . सम्मत्तस्सइआरे, पडिक्कमे देवसिअं सर्व ॥६॥ १) शंका, २) आकांक्षा, ३) विचिकित्सा, ४) अन्यदृष्टि प्रशंसा और ५) संस्तव कुलिंगियों का, इस प्रकार सम्यग् दर्शन के ये ५ अतिचार दोष हैं। . १) शंका-जिनोक्त तत्त्व, सर्वज्ञ वचन, आगम वचन पर संदेह-शंका होनी । २) कांक्षा- इहलोक-परलोक संबंधी भोगों-उपभोगों की प्राप्ति की इच्छा रखनी, ऐसी इच्छापूर्वक ही धर्म करना यह कांक्षा दोष है। ३) विचिकित्सा- यह मत भी ठीक है और वह मत भी ठीक है, सही है ऐसी अस्थिर विचारधारा, जिसमें सच्चे और झूठे दोनों पंथों-मतों की विचारधारा को समान माननेरूप मिथ्यात्व दोष लगता है । हीरे और नकली कांच के टुकडे दोनों को समान मानने की वृत्ति यह अतिचार है। ४) अन्यदृष्टि प्रशंसा-अभिग्रहीत मिथ्यात्व से वासित क्रियावादी प्रमुख अन्य की प्रशंसा करनी इसे अन्यदृष्टि प्रशंसा नामक अतिचार कहा है । पाखंडियों के गुणों की वृद्धि आदि प्रकर्ष का मन से भी प्रशंसा भाव यह दोष है । ४३२ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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