Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 461
________________ है, इस तरह चेतना लक्षणवाले जीव के अस्तित्व को न मानते हुए उल्टे अजीव-निर्जीव हैं ऐसी बुद्धि रखना, यह मिथ्यात्व की संज्ञा है । ८. अजीव में जीव बुद्धि यह ऊपर के पक्ष से ठीक उल्टा है । शरीर, इन्द्रियाँ और मन जो कि जीव रूप नहीं है, जो जड़ है, उन्हें जीव मानना, या पौद्गलिक पदार्थ के संयोजन से या रासायनिक संयोजन आदि से जीव उत्पन्न होता है, या जीव बनाया जा सकता है, इस तरह अजीव में भी जीव मानने की बुद्धि यह भी मिथ्यात्व की संज्ञा है। ९. मूर्त को अमूर्त मानना जो मूर्तिमान–साकार रूपी पदार्थ है उसे अरूपी-अमूर्त मानना जैसे पुद्गल स्कंध को अमूर्त-अरूपी मानना, या शरीर, इन्द्रिय और मन को अरूपी-अमूर्त मानना, कर्म मूर्त होते हुए भी उसे अमूर्त मानना, यह विपरीत बुद्धि भी मिथ्या संज्ञा है। १०. अमूर्त को मूर्त मानना उपरोक्त बात का यह ठीक विपरीत भेद है। इसमें अरूपी अमूर्त आत्मा को रूपी एवं मूर्त-साकार मानने की बुद्धि होती है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय आदि अरूपी-अमूर्त पदार्थों को रूपी-मूर्त मानना, यह उल्टी मान्यता मिथ्यात्व की संज्ञा है। इस तरह मिथ्यात्व के कारण जिसकी मति विपरीत हो चुकी है, वह ऐसी अनेक विपरीत मान्यताएं रखकर चलता है, एवं विपरीत व्यवहार भी करता है । ऐसे और भी कई विषयों में अनेक संज्ञाएं हो सकती हैं । जैसे, वीतरागी–सर्वज्ञ भगवान को रागी-द्वेषी एवं अल्पज्ञ मानना या सर्वकर्ममुक्त सिद्धात्मा में भी राग-द्वेष की संसारी बुद्धि रखना। सर्वकर्मरहित परमात्मा भी दैत्य-दानवों का दमन करते हैं, इच्छा पूर्ण करनेवाले भगवान कहलाते हैं, या राग-द्वेषवाले भोगलीला करनेवाले भी भगवान होते हैं ऐसी मान्यता रखना, यह मिथ्यात्व की मति है। इस तरह मिथ्यात्व के कारण जीव कई प्रकार की विपरीत मान्यताएं रखता है। मिथ्यात्वी का सारा ज्ञान विपरीत बुद्धिवाला होता है। ऐसे मिथ्यात्व को दो विभाग में विभक्त किया गया है-१) तत्त्व पदार्थ के विषय में यथार्थ श्रद्धा का अभावरूप मिथ्यात्व, एवं २) अयथार्थ तत्त्व-पदार्थ पर श्रद्धारूप मिथ्यात्व । वैसे आपाततः देखने पर दोनों ४०० आध्यात्मिक विकास यात्रा

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