Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 472
________________ ५) योग में मिथ्यात्व सबसे पहला बंध हेतु है। ऐसे बंध की स्थिति भी काफी ज्यादा लम्बी चौडी होती है । मोहनीय कर्म की बंध स्थिति शास्त्रकार भगवंतों ने ७० कोडा कोडी सागरोपम की बताई है। जहाँ सागरोपम अर्थात् असंख्य वर्ष होते हैं । वे भी यहाँ पर सिर्फ सादे सागरोपम ही नहीं हैं परन्तु कोडाकोडी सागरोपम हैं । करोडों को करोडों से गुणाकार करने पर कितने असंख्य वर्ष आएंगे ? और फिर ऐसे ७० कोडा-कोडी सागरोपम हैं । अतः अब हिसाब लगाइये कि कितने वर्ष होंगे ? कितना लम्बा काल हुआ ? १ अवसर्पिणी १० कोडा कोडी सागरोपम की होती है । दोनों मिलाकर २० कोडा-कोडी सागरोपम का काल होता है जिसे एक कालचक्र कहते हैं । ऐसे ३ कालचक्र बीतने पर ६० कोडा कोडी सागरोपम का काल होगा । और मोहनीय कर्म की बंधस्थिति ७० कोडा कोडी सागरोपम की है । अतः १० कोडा कोडी सागरोपम प्रमाण १ उत्सर्पिणी और बीतेगी तब ७० कोड़ा कोडी सागरोपम का काल होगा । तब जाकर मोहनीय कर्म जो सत्ता में पडा है उसका काल समाप्त होगा । अब सोचिए, कितना लम्बा-चौडा काल है । इतना ही नहीं १ अवसर्पिणी में २४ तीर्थंकर होते हैं । पुनः १ उत्सर्पिणी में भी २४ तीर्थंकर भगवान होते हैं । ३ ॥ कालचक्र में ७ उत्सर्पिणी - अवसर्पिणियों के ७० कोडाकोडी सागरोपम परिमित काल में कुल मिलाकर ७ चौबीसीयाँ हो जाती हैं । १ चौबीसी में २४ तीर्थंकर भगवान होते हैं । अतः ७ चौबीसीयों में कुल मिलाकर ७ x २४ १६८ तीर्थंकर भगवान हो जाते हैं इतने तीर्थंकर भगवान हो जाने पर, और उतना लम्बा काल बीतने पर ७० कोडा कोडी सा की मोहनीय कर्म की बंधस्थिति का काल परिपक्व होता है । इस तथ्य पर से यह समझिए कि मिथ्यात्व का बंध कितना गाढ होता है ? अतः ऐसे गाढतम मिथ्यात्व के बंध को छोडने के लिए इससे बचने के लिए... भरसक पुरुषार्थ करना ही चाहिए । = 1 आचार यदि मिथ्यात्व की तीव्रता है तो दूसरे सभी पापों में भी वैसी तीव्रता स्पष्ट दिखाई देगी । हिंसा झूठ चोरी आदि के सभी पाप भयंकर कक्षा की तीव्रतावाले होंगे । उस मिथ्यात्वी जीव का जीवन, मानसिक विचारधारा, भाषा, रहन-सहन, करणी, र-विचार आदि सब कुछ सम्यक्त्वी जीव से सर्वथा अलग ही प्रकार का लगेगा । प्रत्येक बात में यह जीव सम्यक्त्वी से अलग ही लगेगा । सम्यक्त्वी जीव का मन - कलेजा - दिल सब कोमल - सुकोमल रहेंगे जबकि मिथ्यात्वी का दिल पत्थर जैसा कठोर, क्रूर रहेगा । अतः मिथ्यात्व की भूमिका में से बहुत जल्दी बाहर निकलना ही चाहिए । "मिथ्यात्व " - प्रथम गुणस्थान ४११

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