Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 482
________________ दर्शन-वंदन-पूजनादि क्रिया को भावक्रिया अभी भी नहीं बना सकती है, है तो द्रव्यक्रिया ही लेकिन बलादृष्टिवाली व्यक्ती इन क्रियाओं के प्रति अपनी प्रीति- भक्ती जोडती है । इससे ये क्रियाएं अच्छी लगती हैं, पसन्द आती हैं । इनमें मन लगता है । मिथ्यात्व की उपस्थिति यहाँ भी होने से यह मिथ्यात्व इन दृष्टियों को शुद्धरूप में आने ही नहीं देता है । ४) दीप्रा दृष्टि दीपक की प्रभा के लिए दीप्रा शब्द का प्रयोग यहाँ किया गया है । दीप्रायां त्वेष दीपप्रभातुल्यो विशिष्टतर उक्तबोधत्रयात् अतोऽत्रोदग्रे स्थितिवीर्ये तत्पटव्यपि प्रयोगसमये स्मृतिः । इस चौथी दीप्रा दृष्टि में बोध - प्रकाश दीपक के प्रकाश जितना होता है । यह जरूर पहली ३ दृष्टियों की अपेक्षा अधिकतर - विशिष्ट कक्षा का होता है । इसके कारण इसके संस्कार, स्थिरता तथा बलवत्तरता का प्रमाण बढता है । दर्शन - वंदन - पूजनादि क्रियाओं में इनका स्मरण काफी अच्छा रहता है । इन क्रियाओं में अब द्रव्यात्मकता होते हुए भी भावात्मकता की शुरुआत होती है । भव के लिए दीप्रादृष्टि में प्रयत्न होता है । भक्तिपूर्वक होता है । इतना प्रयत्न प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान पर मिथ्यात्व की काफी मन्दता को लेकर हो रहा है । उसकी धर्माराधना में बल बढता है । शक्तीकालिक स्थिरता बढती है | ज्ञान का प्रकाश प्रमाण में बढता है । संस्कार भी टिकते हैं । धर्मानुष्ठान में विशेष प्रीतिभक्ति सद्भाव जगता है । धर्मक्रियाओं के समय इस चौथी योगदृष्टि के कारण ज्ञान - प्रकाशादि बढते हुए अच्छी स्मृतिरूप में आकर उपस्थित होता है । दीपक की ज्योति की तरह यहाँ भक्ती के साथ भाव भी जगते हैं, प्रीति - भक्ति बढती हुई भाव को भी बढा देती है। ज्ञान प्रकाश की स्मृति और संस्कार भी धर्मक्रिया के समय उपस्थित रहते हैं । कुछ अंशों में श्रद्धा की भूमिका भी काफी अच्छी बनती है । लेकिन. .. हाँ एक बात अभी भी ध्यान में रखिए कि सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हुआ है।... सम्यक्त्व की पूर्व भूमिका में आगे बढ रहा है । मध्य समुद्र के बीच से इसकी नौका काफी किनारे पर जरूर पहुँच रही है। इस चौथी दीप्रा दृष्टि में श्रद्धा - प्रीति - भक्ती - भावपूर्वक दर्शन - वंदन - पूजनादि धर्मक्रियाएं जीव को मिथ्यात्व की मन्दता की पराकाष्ठा पर पहुँचा देती है । अतः आगमवेत्ता महापुरुष फरमाते हैं कि श्रद्धा - प्रीति — भक्ती - भावपूर्वक की धर्माराधना मिथ्यात्व गुणस्थान पर... प्रकर्ष पराकाष्ठा पर पहुँचाने में काफ़ी सहायक है । जिसके फलस्वरूप सम्यक्त्व की प्राप्ति हाथ वेंत ही लगती है । अब ज्यादा दूर नहीं "मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान ४२१

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