Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 481
________________ तारा नाम की दूसरी दृष्टि में बोध गोमय-गोबर के छाणे की अग्नि के जैसा है। हाँ, प्रथम मित्रा दृष्टि के तृणाग्नि से गोमयाग्नि का प्रकाश प्रमाण में–तुलना में ज्यादा जरूर है, परन्तु पर्याप्त तो नहीं है । यह अग्नि प्रकाश भी परवस्तु को प्रकाशित द्योतित नहीं कर सकता है फिर भी स्वयं अपनी पहचान तो दे सकता है । इतने अंश में तो सामर्थ्य रहता ही है । अंधकार में पड़ा हुआ गोमयाग्नि प्रमाण में तृणाग्नि से ज्यादा जरूर लगता है परन्तु अभी तक भी वह इष्टकार्य साधक नहीं बन सकता है । ऐसे अग्निप्रकाश में,हम पढ-लिख नहीं सकते हैं। यह भी अल्पकालिक है। स्थिति कम है। ठीक ऐसी ही स्थिति तारादृष्टिवाले व्यक्ति की है । इससे दर्शन-वंदन-पूजनादि क्रिया में भी भावात्मकता आनी संभव नहीं है । अतः ये सब धर्मक्रिया द्रव्यक्रिया ही रह जाती है । तारा दृष्टि के बोध में तात्विक बल या स्थैर्य नहीं होने के कारण क्रिया करने के साथ उस बोध का स्मरण नहींवत् टिक पाता है । अतः धर्मक्रिया यथार्थ नहीं हो सकती है । इस तरह तारा दृष्टि में भावक्रिया संभव ही नहीं बनती है । फिर भी पहली मित्रा दृष्टि से इसका प्रमाण थोडा बढा जरूर है। मिथ्यात्वी जीवों को यह दृष्टि-ऐसा बोध प्रकाश अल्पतमावस्था में रहता है । ३) बला दृष्टि बलायामप्येष काष्ठाग्निकणकल्पो विशिष्ट ईषदुक्तबोधद्वयात्, तद्भवतोऽत्रं मनाक् स्थितिवीर्ये, अत: पटुप्राया स्मृतिरिह प्रयोगसमये, तद्भावे चार्थप्रयोगमात्रप्रीत्या यत्नलेशभावादिति। प्रथम की दो दृष्टियों से यहाँ तीसरी बला दृष्टि में प्रकाश बढा । यहाँ काष्ठाग्नि का प्रमाण है । लकडी जलती हुई पडी हो, अर्थात् कोयले जलते हए सिगडी में पडे हए हो. .. परन्तु एक की संख्या में वह भी परवस्तु को प्रकाशित करने में कितना सक्षम-समर्थ हो सकता है ? नहीं। हम उसमें पढ़-लिख नहीं सकते हैं । इसमें स्थिरता का समय प्रथम दो दृष्टियों की अपेक्षा जरूर बढा है। प्रथम की दो दृष्टि का बोध तीसरी दृष्टि का बोध-प्रकाश जगाती है । अभी इस बला दृष्टि में भी दर्शन-वंदन-पूजनादि क्रिया में भावात्मकता नहीं आई है। फिर भी कुछ संस्कार बलवान बने हैं, टिकने का काल कुछ बढा है। संस्कार जागृत होने से दर्शन-वंदन-पूजनादि धर्मक्रिया में प्रीति बढती है। धर्मक्रिया में प्रेम बढता है । प्रेमपूर्वक होती है । कुछ सार्थकता जरूर लगती है । धर्मयोग की शुद्ध प्रीति बढने से धर्मक्रिया साधी जा सकती है। भले ही प्रीति संपूर्ण बलवान न भी हो फिर भी कुछ उत्साह–प्रीति धर्मयोग में जगाती है यह दृष्टि । यह बला दृष्टि ४२० आध्यात्मिक विकास यात्रा

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