Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

Previous | Next

Page 479
________________ की स्थिरता का प्रमाण बढा । रत्न का प्रकाश स्थिर रहेगा। प्रकाश का प्रमाण बढा भी सही और नित्यता भी लम्बे काल तक रही । दीपक का प्रकाश भी स्थिर नहीं रहता है, और सदा नित्य भी नहीं रहता है। क्योंकि तेल पर भी आधार रहता है । अतः दीपक की ज्योति का प्रकाश तक मिथ्यात्व बताया गया है । और चौथी स्थिरा दृष्टि से परा दृष्टि तक की चार दृष्टियाँ सम्यक्त्व की हैं। इनका प्रकाश स्पष्ट एवं स्थिर है। क्योंकि सम्यक्त्वी की दृष्टि स्थिर है । रत्न स्थायी पदार्थ है । अतः इसके प्रकाश की प्रभा भी स्थिर है । रत्न का प्रकाश कभी घटता बढता नहीं है । जैसा है वैसा सदा रहता है । इससे भी आगे तारा के प्रकाश की प्रभा भी निरंतर-सतत है । यह भी समाप्त होनेवाली नहीं है, स्थिर-स्थायी है। तारा के प्रकाश से सूर्य का प्रकाश अत्यन्त ज्यादा है । स्थिर-स्थायी रहता है । और अन्त में चन्द्र का प्रकाश बताया गया है । सूर्य के प्रकाश और चन्द्र के प्रकाश में समानता कैसे करें? आश्चर्य जरूर होगा कि सूर्य के प्रकाश के बाद चढते क्रम में आगे चन्द्र का प्रकाश क्यों बताया ? जबकि सूर्य से चन्द्र का प्रकाश प्रमाण में भी कम है । और चन्द्र की कलाओं के कारण प्रमाण कम-ज्यादा भी जरूर होता है । लेकिन इस उपमा को देने के पीछे हेतु यह है कि... चन्द्रप्रकाश सौम्य है, शीतल है । अतः परा दृष्टि तक पहुँचे हुए महापुरुष की सौम्यता-शान्तता बहुत ही श्रेष्ठ कक्षा की होती है । इस अंश की सादृश्यता यहाँ ग्रहित है । प्रकाश मात्र वस्तु के बोध अर्थ में ही सीमित नहीं है । परन्तु आत्मा में विशिष्ट परिणमन अर्थ में भी अभिप्रेत है । आत्मा में बोध परिणति कषायों के शमनादि का परिणाम लाता है। इससे उद्वेग का शमन होता है । फलस्वरूप सौम्यता, शान्तता, शीतलता आदि की वृद्धि की सादृश्यता के कारण चन्द्र की उपमा का दृष्टान्त दिया गया है जो सार्थक है, सहेतुक है । सूर्य प्रकाश में जो उष्णता-उग्रता–दाहकता आदि है उनका यहाँ चन्द्रप्रकाश में अभाव हो जाता है । अब क्रमप्राप्त एक-एक दृष्टि का विचार करें जिससे उस उस दृष्टि स्थान पर रहे हुए जीवों का ख्याल स्पष्ट हो सकेगा। १) मित्रा दृष्टियदाह मित्रायां बोधस्तृणाग्निकणसदृशो भवति, न तत्त्वतोऽभीष्टकार्यक्षमः । प्रथम मित्रा दृष्टि में बोध तिनके की अग्नि के समान अल्पतम नाम मात्र ही होता है। अग्नि के कण-एकांश के प्रकाश के जितना ज्ञान का प्रकाश इस मित्रा दृष्टिवाले जीव में रहता है । यद्यपि दिन के प्रकाश में इसका कोई महत्व नहीं रहता है अर्थात् केवली के ४१८ आध्यात्मिक विकास यात्रा

Loading...

Page Navigation
1 ... 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496