Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

Previous | Next

Page 487
________________ I भी यदि मिथ्यात्वी बोलेगा तो इस अंश को भी सत्य ही कहना पडेगा । हाँ, संपूर्ण सत्य मिथ्यात्वी न भी बोले, आत्मा-परमात्मा - मोक्षादि तत्त्वों को न भी पहचान पाए, फिर भी यह मनुष्य है इत्यादि आंशिक सत्य जरूर बोलता है । इस दृष्टि से भी पहले गुणस्थान पर उसे गिना जाना उचित है । शास्त्रकार महर्षि तो यहाँ तक कहते हैं कि 1 सभी जीव गात्र में चाहे वह छोटा हो या बडा, निगोद का सूक्ष्म जीव हो या स्थूल जीव हो, सभी जीवों में ज्ञान का अनन्तवाँ भाग भी निश्चित प्रगट होता ही है । यदि ऐसा न हो तो अर्थात् अनन्तवें भाग जितना भी ज्ञान कर्माणुओं से आवृत्त हो जाय तो तो फिर जीव-जीव न रहे अजीव बन जाय । लेकिन पारिणामिक भाव से ऐसा कभी होता ही नहीं है । जीव कभी भी जड़ बनता ही नहीं है और अजीव- - जड कभी जीव बनता ही नहीं है । जीव का अस्तित्व उसके ज्ञानादि गुण के कारण है और अजीव - जड का अस्तित्व उसके ज्ञानादि गुण के कारण है और सजीव - जड का अस्तित्व उसके वर्ण-गंध-रस-स्पर्शादि गुणों द्वारा है । अजीव - जड में कभी ज्ञानादि गुण आते ही नहीं हैं और जीव में से ज्ञानादि का सर्वथा नाश कभी होता ही नहीं है । इसलिए जीव का जीवत्व सदा काल बना रहता है । इस प्रकार के सामान्य आंशिक बोध में आंशिक सत्य भी मिथ्यात्व की कक्षा में प्रकट है । अतः मिथ्यात्व को भी पहले गुणस्थान के रूप में गिना है । और ऐसे मिथ्यात्व से ग्रस्त जो मिथ्यात्वी जीव है वे भी मिथ्यात्व के प्रथम गुणस्थान पर ही गिने जाते हैं । 1 सव्व जीवाणमक्खरस्स अणंतमो भागो, निच्चमुघाडीओ चिट्ठई । जइ पुण सोवि आवरिज्जा तेणं, जीवो अजीवत्तणं पाउणिज्जा ।। - ४२६ दूसरी तरफ जीव की विकास यात्रा सर्वप्रथम मिथ्यात्व के गुणस्थान से ही प्रारंभ होती है । सम्यक्त्व का गुणस्थान जरूर चौथा है परन्तु सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए सारा पुरुषार्थ तो जीव को पहले मिथ्यात्व गुणस्थान के घर में रहकर ही करना है यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, अपुनर्बंधकावस्था या आदि धार्मिक की अवस्था जीव को पहले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर ही प्राप्त करना है । मार्गानुसारिता के गुणों का विकास भी जीव पहले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर रहकर ही करता है । यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया में उत्कृष्ट बंधस्थितियों को अकाम निर्जरा से क्षीण-क्षय करके कम करना, घटाना और अन्तःकोडाकोडी अर्थात् १ कोडाकोडी सागरोपम के अन्दर की करने का सारा काम मिथ्यात्व के घर में रहकर ही करता है । एक बार अन्तःकोडाकोडी की स्थितियाँ करके फिर जीव अपुनर्बंधक अवस्था प्राप्त कर लेता है जिससे पुनः उत्कृष्ट आध्यात्मिक विकास यात्रा

Loading...

Page Navigation
1 ... 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496