Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 489
________________ तैयार नहीं है । लोकोत्तर कक्षा के किसी भी पदार्थों का अस्तित्व मानने के लिए वह तैयार नहीं है । हाँ, लौकिक द्रव्य पदार्थ जो भी हो उसे ही मानकार वह जीता है। और उन्मत्त भाव से दूसरों को भी वैसा ही कहता फिरता है । इसी तरह जो ईश्वर सृष्टि - जगत् के कर्ता सृष्टा - संहर्ता नहीं हैं उन्हें भी सृष्टिकर्ता-सृष्टा—संहर्ता के रूप में मानकर पूजता है और स्व-स्वार्थ याचना करता रहता है । ऐसी मान्यतानुसार ईश्वर को प्रसन्न करने के विविध उपाय योजता रहता है। कभी बली चढाने का काम करेगा परन्तु पशु हिंसा के महापाप से भी नहीं डरेगा । कभी यज्ञ-याग—होम-हवन करेगा उसमें भी पशुबली, और नरबली आदि को धर्म मानकर चलेगा। ऐसी हिंसाकारी अनेक प्रवृत्तियाँ करते हुए भी उसे धर्म मानकर चलेगा । सर्वज्ञ वीतरागी तीर्थंकर भगवन्तों के द्वारा कथित धर्म के मर्म से - सिद्धान्त से विपरीत ही चलेगा । अनेकान्त सिद्धान्त से हटकर वह एकान्त सिद्धान्त की ही पक्कड मानेगा। सात नयों को सम्मिलित रूप से विचार न करके एक-एक नय की पक्कड और नयाभास की पक्कड में फसता जाएगा। अट्ठारह ही प्रकार के पापों कों करने में मस्त रहता है । किसी भी पाप को सही अर्थ में पाप रूप ही मानने- स्वीकारने के लिए तैयार नहीं ऐसा घोर मिथ्यात्वी अपना स्वार्थ साधने के लिए सब पाप को करता रहता है और कई बार वह पाप को भी पुण्य के रूप में, धर्म के सुहावने नाम के नीचे करता है । अब आप ही सोचिए जब पाप को भी धर्म के रंग से रंगकर धर्म के कवच में रखकर कहने-कराने लग जाता है तब कैसी परस्थिति खडी होती है ? अरे ! कुत्ता जंगल में मरे शेर की खाल ओढकर अपने को शेर दिखाता हुआ चलता है ऐसा झूठा नाटक भला कहाँ तक चलेगा ? क्या कुत्ते के भोंकने पर शेर है या कुत्ता यह ख्याल नहीं आएगा ? हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, व्यभिचार, परिग्रह, संग्रह, क्रोध, लोभादि कषायों तथा अभ्याख्यान, आक्षेप, आरोप परनिंदा, माया, विषय वासना, अति काम क्रीडा, महामिथ्यात्व आदि सब प्रकार के पापों को करने में पूरी तैयारी - पूरी इच्छा, पाप का भय तो सर्वथा नहीं, ऊपर से पाप से सुख मिलता है, पाप में मजा आती है इत्यादि विचारसरणी से स्वयं ग्रस्त रहता है और दूसरों को भी अपने विचार जाल में फसाने के दाव-पेच खेलता रहता है । कपट, संख्या की दृष्टि से मिथ्यात्वी जीव उपरोक्त वर्णन यह मिथ्यात्वी जीव की अल्प पहचान है । यहाँ स्थान - संकोच के कारण स्वल्प वर्णन किया है । परन्तु मिथ्यात्व ग्रस्त मिथ्यात्वी जीव का पूर्ण स्वरूप तो ४२८ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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