Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 469
________________ प्रवृत्तियाँ करता रहता है । १. मन से सोचना विचारना २. वचन से बोलना आदि वाग्व्यवहार तथा ३. काया (शरीर) से शारीरिक प्रवृत्ति खाना-पीना, सोना-उठना-बैठना, चलना-फिरना, आना-जाना, देखना-सुनना आदि प्रवृत्तियाँ करता रहता है । उपरोक्त मन-वचन-काया के तीनों तरीकों से जो भी प्रवृत्तियाँ होती हैं, वह मात्र दो ही प्रकार की होती हैं— अच्छी या बुरी । अच्छी को दूसरी भाषा में शुभ तथा बुरी को अशुभ कहते हैं । इन्हीं को शास्त्र की भाषा में पुण्य और पाप के नाम दिये जाते हैं । तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में पूज्य उमास्वाति म. ने “शुभः पुण्यस्य” “अशुभः पापस्य" इस सूत्र में स्पष्ट किया है। जीव मन से जो भी कुछ सोचता-विचारता है तथा वचन योग से जो भाषा का व्यवहार करता है एवं काया और इन्द्रिय से खाने-पीने, देखने-सुनने आदि की जो क्रिया करता है उनमें शुभ-अशुभ, अच्छी-बुरी, या पुण्य-पाप की ही मुख्य दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती है । शुभ-अच्छी प्रवृत्ति से पुण्योपार्जन होता है; और अशुभ-खराब प्रवृत्ति से पाप का उपार्जन होता है । ४२ प्रकार के कारण जिन कार्मण-वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का आत्मा में आश्रव (आगमन) होता है तथा आत्मसात् होकर जो कर्म पिण्ड बनता है, उसे कर्म कहते हैं । इस तरह पाप-कर्म (क्या है और कैसे बनते हैं) की प्रक्रिया है। मिथ्यात्व को पापस्थानक इसलिए कहते हैं कि इसमें मन के द्वारा तत्त्वादि के विषय में जो कुछ सोचा विचारा जाता है वह वास्तविक सत्य से विपरीत ही होता है, एवं अश्रद्धा तथा अज्ञानरूप होता है । उसी तरह जैसा विचारता है वैसा व्यवहार में बोलता-चालता है । अतः इस प्रकार की मन-वचन-काया की विपरीत मिथ्याप्रवृत्ति पाप-कर्म बंधाने में कारण बनती है । मिथ्यात्व को अव्वल नंबर का कर्मबंध का मुख्य हेतु गिना है । उमास्वाति म. ने तत्त्वार्थ में बताया है कि मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतव:- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच मुख्य रूप से कर्मबंध के हेतु हैं । इनमें सबसे पहला बंध हेतु मिथ्यात्व को बताया गया है । मिथ्यात्व आत्मा के सम्यग्दर्शन गुण का अवरोधक है । अतः इसे अच्छा कैसे कह सकते हैं? जो आत्मा को विपरीत ज्ञान-अज्ञान-अश्रद्धा में रखे उसे अशुभ-पाप न कहें तो पुण्यरूप शुभ कैसे कह सकते हैं ? जब शुभ नहीं है तब अशुभरूप यह मिथ्यात्व पाप ही कहलायेगा। जो आत्मा को अनेक प्रकार के भारी कर्म बंधाता है, जिस मिथ्यात्व में कर्मबंध की स्थितियाँ उत्कृष्ट कक्षा की पड़ती हैं, जो आत्मा का विकास होने ही न दें, तथा जो आत्मा को संचारचक्र में दीर्घकाल तक परिभ्रमण कराता ४०८ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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