Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 465
________________ हो, सत्ता-सम्पत्ति-पद-प्रतिष्ठा, यश, कीर्ति आदि मिले, एवं मैं जेल से छूट जाऊँ, सजा से मुक्त हो जाऊँ, इस केस में जीत जाऊँ, घुड़दौड़ में जीत जाऊँ, संकट से बच जाऊँ, फैक्ट्री-दुकान अच्छी चेले आदि के विषय में ऐसी इच्छा या हेतु रखकर गुरु सुश्रुता सेवा, भक्ति आदि करना सांसारिक सुख भोगों की अपेक्षा से साधु सन्तों को मानना-पूजना या वंदन करना या आशीर्वाद लेना यह सब इस प्रकार की मिथ्यावृत्ति है । अतः इसका त्याग ही हितावह है। " ६. लोकोत्तर पर्वगत मिथ्यात्व सर्वश्रेष्ठ कर्मनिर्जराकारक, मोक्षप्राप्ति के सहायक, ज्ञानपंचमी, मौन एकादशी, पोष-दशमी, आयंबिल ओली, पर्युषण महापर्व एवं संवत्सरी महापर्व आदि पर्वो की आराधना कर्मक्षय के लिए करनी चाहिए। पर्यों में विशेष रूप से तप-त्याग, व्रत-पच्चक्खाण ज्ञान-दर्शन-चारित्र तपादि से आराधना करनी चाहिए और कर्मक्षय एवं आत्मशुद्धि का ही लक्ष्य रखना चाहिए । यही सम्यग् साधना है। परन्तु ठीक इससे विपरीत हेतु से पर्व को त्यौहार के रूप में मनाना, तप-त्याग के बजाय खा-पीकर मनाना, या सन्तान प्राप्ति, शादी, देह सौंदर्य, रूप-स्वरूप आदि अच्छा मिलने की इच्छा से मनाना, स्वर्ग या सुख भोगों की प्राप्ति के लिए मनाना या मानना या मान-अभिमान की पुष्टि, पद-प्रतिष्ठा यश-कीर्ति की प्राप्ति आदि सांसारिक इच्छाओं एवं आशाओं की पूर्ति के हेतु से महापर्वो का मानना या मनाना यह लोकोत्तर पर्वगत मिथ्यात्व है । यह भी सर्वथा त्याज्य है। ___ उपरोक्त तीनों लोकोत्तर देव, गुरु एवं धर्म पर्वगत मिथ्यात्व धर्मी आत्माओं को भी लग सकते हैं, यदि वे ऐसी अपेक्षा, आकांक्षा एवं हेतु से करते हों। अतः जैसी देव-गुरु-धर्म की ऊँची श्रेष्ठ लोकोत्तर कक्षा है उनकी उतनी ही श्रेष्ठ ऊँची कक्षा की रीत–विधि एवं कर्मक्षय-आत्मशुद्धि की शुद्ध भावना एवं अच्छे हेतु-लक्ष्य से आराधना-उपासना करनी चाहिए । यही सम्यग् मार्ग है। मिथ्यात्वी जीव “विपरीत: भावः मिथ्याभाव:-मिथ्यात्वम् ।।" मिथ्या अर्थात् विपरीतवृत्ति या बुद्धि । मिथ्यात्व अर्थात् विपरीतवृत्ति का भाव । मिथ्या शब्द से भाववाचक अर्थ में मिथ्यात्व शब्द बनाया है । तत्त्व एवं सत्य सिद्धान्त की ४०४ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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