Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 398
________________ रसोईघर के मलीन कपडे को रोज धोते ही जाएं तो क्रमशः थोडा-थोडा मैल उतरता जाएगा और शुद्ध होता ही जाएगा । ठीक वैसे ही आत्मा भी अपने कर्मों की मलिनता के कर्मों को दूर करती जाय वैसे वैसे गुणों को बढाती हुई आत्मा आगे बढती जाती है। जितने प्रमाण में जीव कर्मों के आवरण को हटाता जाएगा उतने ही प्रमाण में आत्मा के गुणों को विकसित करता जाएगा। गुणों को बढाता जाएगा। और जैसे जैसे गुण बढते ही जाएंगे वैसे वैसे आत्मा आगे-आगे बढ़ती ही जाती है । मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होती ही जाती है । यही उसकी प्रगति है । आध्यात्मिक विकास है । हम मोक्ष की तरफ जितने आगे बढते जाएं, जितने मोक्ष के नजदीक पहुँचते जाएं, जितने ऊपर चढते जाएं उतना ही हमारा विकास होता जाता है । उत्क्रान्तिवाद एवं आध्यात्मिक विकासवाद डार्विन ने जो उत्क्रान्तिवाद बताया है वह भूतभौतिक है । विज्ञान भौतिक-जड पदार्थों पर आधारित है । जबकि धर्म आत्मा पर आधारित है । इसलिए विज्ञान के क्षेत्र में भौतिक विकास को स्थान दिया गया है । जबकि धर्म के क्षेत्र में जो विकास है आध्यात्मिक विकास कहा जाता है । डार्विन जैसे व्यक्ती ने बिना समझे ही उत्क्रान्तिवाद की बातें कह दी और मनुष्य को बंदरो से विकसित अवस्थावाला बता दिया । यहाँ किन सेलों-तन्तुओं का विकास हुआ? कैसे हुआ? कुछ भी स्पष्ट नहीं है । चेतना शक्ती आत्मा को सर्वथा न माननेवाले न जाननेवाले डार्विन को क्या पता चले कि विकास क्या होता है ? और कैसे होता है? क्या डार्विन का सिद्धान्त जगत् को लागू हुआ कि नहीं? संसार के सर्व पदार्थों पर सिद्धान्त सर्वथा सही रूप में बैठता ही नहीं है। . सिद्धान्त उसे कहते हैं जो त्रैकालिक सत्य हो । तीनों काल में सत्यता वास्तविकता सिद्ध हो उसे सिद्धान्त कहते हैं। अतः जो कभी भी बदलता नहीं है उसे सिद्धान्त कहते हैं। सिद्धान्त सर्वथा अपरिवर्तनशील होता है । जो बदलता है उसे सिद्धान्त नहीं कहा जाता है और जो सिद्धान्त होता है वह कभी भी बदलता नहीं है । विज्ञान के घर में सिद्धान्त आज कुछ है और कल बदलकर कुछ और ही हो जाते हैं । इस तरह कई सिद्धान्त बदलते ही रहते हैं । जबकि धर्म के क्षेत्र में सिद्धान्त का आधार सर्वज्ञ केवलज्ञानी पर आधारित है। इसलिए सिद्धान्त त्रैकालिक-शाश्वत होते हैं। कभी भी बदलते नहीं हैं। धर्म के सिद्धान्त अपरिवर्तनशील हैं और विज्ञान के सिद्धान्त सर्वथा परिवर्तनशील सिद्ध हो चुके हैं। ऐसी परिवर्तनशीलता-बदलते स्वरूप में ज्ञान की स्थिर विचारधारा कभी भी नहीं गुणात्मक विकास ३३७

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