Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 458
________________ स्वरूप को नहीं स्वीकारा गया है। अतः आर्हत् ऐसे सर्वज्ञवादी दर्शन ने ईश्वर का परम शुद्ध-शुद्धतम स्वरूप स्वीकारा है । अतः रत्तीभर विकृति को स्थान ही नहीं है जैन दर्शन में। . जैन दर्शन को जो अनीश्वरवादी या निरीश्वरवादी कहा जाता है उसका सीधा तात्पर्य ईश्वर की सत्ता के अभाव से नहीं है, परन्तु ईश्वर के कर्तापन आदि से मतलब है । ईश्वर के सर्वथा अभाव को माननेवाले जैन होते तो आदिनाथ भगवान से लेकर महावीरस्वामी तक के २४ तीर्थंकर भगवान को परमेश्वर के रूप में कैसे मानते? भारत भर में सर्वत्र सेंकडों जैन मंदिरों का अस्तित्व है। कई तीर्थ तो प्रागैतिहासिक काल से अपना अस्तित्व आज भी रख रहे हैं । इन सेंकडों जैन मंदिरों में पूजा-अर्चना पद्धति चलती है । जो सहेतुक शुद्ध पद्धति से अखण्ड परंपरा में आज भी चल रही है । ईश्वर-परमेश्वर विषयक सेंकडों प्रकार के स्तोत्रपाठ-स्तुतियाँ, स्तवन-कीर्तन-भजन आदि हैं, लेकिन उनमें कर्ता-हर्ता अर्थ में कहीं कोई शब्द भी नहीं है । परमेश्वर के गुणों की स्तुतियाँ हैं । अतः ईश्वर को संपूर्ण शुद्ध-शुद्धतर-शुद्धतम स्वरूप में सर्वथा राग-द्वेष रहित वीतरागी, वीतद्वेषी, कर्मक्षय करनेवाले अरिहंत, तीर्थंकर तथा सर्वज्ञ-सर्वदर्शी के रूप में माना गया है। यही परमेश्वर-परमात्मा है । इस हेतु से जैन दर्शन को मात्र आस्तिक ही नहीं अपितु परमास्तिक, शुद्ध आस्तिक कहना ज्यादा उचित है । ऐसी मान्यता सचोट बनानी ही सम्यग् दर्शन है। सम्यग् / मिथ्या मान्यता के कारण सम्यक्त्वी-मिथ्यात्वी यदि आपकी मान्यता सम्यक् है तो आप शुद्ध सम्यक्त्वी हैं, सम्यग् दृष्टि हैं । और यदि आपकी मान्यता सर्वथा विकृत एवं विपरीत है तो आप मिथ्यामति, मिथ्यात्वी एवं मिथ्यादृष्टि हैं। मान्यता देव-गुरु-तत्त्व एवं धर्मादि सभी विषयों में है। 'देव' शब्द संक्षिप्त स्वरूप में ईश्वर-परमेश्वर परमात्मा का ही वाची है । सचमुच, देखा जाय तो जैन दर्शन में-'देवाधिदेव' शब्द है । उसके अंतिम अक्षरों का बना हुआ संक्षिप्त प्रयोग 'देव' शब्द जनसामान्य की जीभ पर चढ गया है। यहाँ 'देव' शब्द से स्वर्ग के देवी-देवता अभिप्रेत नहीं है अतः सूत्र में स्पष्ट करते हुए कह रह हैं कि.. जो देवाणवि देवो, जं देवा पंजलि नमसंति । तं देव-देव महिअं सिरसा वंदे महावीरम्।। जो स्वर्ग के देवताओं के भी देव है, जिनको देवता भी अंजलिबद्ध प्रणाम-नमस्कार करते हैं, ऐसे देवताओं के भी अधिपति परमात्मा महावीरस्वामी को सिर झुकाकर नमस्कार “मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान ३९७

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