Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 456
________________ संबंध जुडा हुआ निश्चित ही है । कोई भी तीर्थंकर बिना केवलज्ञान की प्राप्ति के बने ही नहीं है । जब चारों घाती कर्मों के आवरण का सर्वथा क्षय हुआ है तभी वे केवली - सर्वज्ञ एवं तीर्थंकर बने हैं। अन्यथा नहीं । इसलिए केवलज्ञान - सर्वज्ञता के बिना तीर्थंकर पद नहीं रह सकता है। तीर्थंकर पद के बिना सर्वज्ञता केवलज्ञान अन्यत्र गणधरादि में जरूर रह सकता है । अतः तीर्थंकर कहना और केवलज्ञानी - सर्वज्ञ न मानना यह बडी मूर्खता प्रकट करने जैसी बात है । कुछ भी कह देने के लिए पहले सही सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लेना अत्यन्त आवश्यक है । अन्यथा अज्ञानता - मूर्खता का प्रदर्शन होता है । जैन ईश्वरवादी है या अनीश्वरवादी ? - 1 ईश्वरवादी शब्द का सीधा अर्थ यह है कि... ईश्वर के अस्तित्व को मानना । ईश्वर को मानते हुए उसे केन्द्र में रखकर अपना सारा व्यवहार करना । यह ईश्वरवादी का कर्तव्य है। ईश्वर ने ही जो अपने अनन्त ज्ञान से मोक्ष का मार्ग बताया है उसे ही धर्म मानकर चलना तथा ईश्वर की आज्ञा को ही धर्म मानकर उसके अनुरूप जीवन बनाना यह ईश्वरवादी का कर्तव्य है इन नियमों को पालनेवाले को ईश्वरवादी कहते हैं। वह आस्तिक होता है । अतः अस्तिभाव, सत्तारूप पदार्थों के अस्तित्व को माननेवाला आस्तिक होता है । ठीक इससे विपरीतवृत्तिवाला अनीश्वरवादी कहलाता है । अनीश्वरवादी या निरीश्वरवादी ये दोनों शब्द समानार्थक - एकार्थक ही हैं । व्याकरण के नियमानुसार ईश्वर शब्द के आगे निषेध अर्थ को द्योतित करने के रूप में 'अन्' और 'निर्' उपसर्ग लगे हैं। इस उपसर्गों के साथ ईश्वर शब्द जुडकर सन्धि होकर ऐसा रूप बना है। अनीश्वर अर्थात् न- ईश्वर, निरीश्वर = अर्थात् न- ईश्वर, ईश्वर है ही नहीं, ईश्वर को मानना ही नहीं है । ईश्वर के अस्तित्व का सर्वथा निषेध करनेवाले, ईश्वर को ही न माननेवाले दर्शनों को अनीश्वरवादी या निरीश्वरवादी दर्शन कहते हैं । ऐसे दर्शनों में मुख्य रूप से चार्वाक दर्शन की गणना होती है । व्याकरण एवं व्युत्पत्ति शास्त्र के आधार पर ऐसा उपरोक्त अर्थध्वनि स्पष्ट निकलती है । वही यहाँ प्रस्तुत की है। लेकिन कुछ ऐसी मान्यता भी प्रचलित करने का प्रयास किया जाता है कि ईश्वरवादी अर्थात् ईश्वर को ही सृष्टि का कर्ता माननेवाले, जो जो सृष्टि का कर्ता- सर्जनहार होता है वही ईश्वर है । और जो जो ईश्वर है वही सृष्टि का सर्जनहार है । ऐसी ईश्वरवादियों की अपनी मनघडंत विचारधारा है । इसलिए इसके आधार पर वे कहते हैं कि - ईश्वर को सृष्टि का सर्जनहार- पालनहार - संहारक अर्थ में न माननेवाले निरीश्वरवादी या अनीश्वरवादी कहलाते हैं । लेकिन यह व्युत्पत्ति न तो व्याकरण के "मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान ३९५

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