Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 444
________________ होने के कारण उनके वचन में, तत्त्व में, धर्म में, धर्मफल में ऐसी शंकाएँ उसके दिमाग में उत्पन्न होती रहती हैं । मन में बार-बार विचार तरंगें उत्पन्न होती ही रहती हैं, कि यह सत्य होगा या नहीं? भगवान हुए थे या नहीं? स्वर्ग-नरक लोक-परलोक होंगे या नहीं? इस तरह सैंकड़ों प्रकार की शंकाएं भूत के रूप में उसके सिर पर सवार होती रहती हैं। नीतिकार ठीक ही कहते हैं- संशयात्मा विनश्यति-श्रद्धावान् लभते फलम्। संशयी-शंकाशील आत्मा विनाश लाती है, नष्ट होती है, नाश की दिशा में जाती है, जबकि श्रद्धावान् जीव फल प्राप्त करता है। यहाँ एक बात का स्पष्टीकरण करना है कि जिज्ञासा-जानने की बुद्धि से यदि शंका प्रकट की जाय, अभ्यास हेतु, वाद-चर्चा या शंका-समाधान के रूप में यदि जिज्ञासावृत्ति से, सहजभाव से शंका या प्रश्न किया जाय, यह गलत नहीं है, यह मिथ्यात्व नहीं है। यह भेद तो पूछनेवाले की वृत्ति से ही स्पष्ट हो जाता है । अतः सांशयिक मिथ्यात्व भी घातक होता है, आत्मा का श्रद्धा से अधःपतन कराता है। ५. अनाभोगिक मिथ्यात्व_एकेन्द्रियादि जीवों को, अज्ञान की प्रधानता के कारण, इस प्रकार का अनाभोगिक मिथ्यात्व होता है । अनाभोग = अज्ञानता । अज्ञानता के कारण तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा या श्रद्धा के अभाव में विपरीत श्रद्धा ही अनाभोगिक मिथ्यात्व कहलाता है । यहाँ समझशक्ति का अभाव ही मुख्य कारण है। यह एकेन्द्रियादि जीवों में तो होता ही है, और किसी विशेषविषय के अज्ञान के कारण, विपरीतज्ञान या श्रद्धावाले मनुष्यों में भी होता है । परन्तु ऐसा अनाभोगिक मिथ्यात्व मनुष्य अभिग्रहिक और अनभिग्रहिक मिथ्यात्वी की तरह कदाग्रही की तरह पकड़ नहीं रखता है, परन्तु सरल होता है । यदि उसे कोई सही ज्ञान समझा दे तो वह भूल सुधार कर समझने के लिए तैयार होता है, क्योंकि आग्रह-कदाग्रह रहित होता है, और यदि कोई उसे विपरीत ही समझा दे, तो वह विपरीत ही पकड़कर रखेगा, परन्तु सही मिलने पर भूल सुधार भी लेगा। निगोदादि एकेन्द्रिय जीव तथा पंचेन्द्रिय जीवों तक अव्यक्त अवस्था में यह मिथ्यात्व पड़ा रहता है । यह समझपूर्वक नहीं, परन्तु समझ शक्ति का विकास ही नहीं हुआ है उसके कारण है । वस्तुविषयक सही ज्ञान के अभाव में अज्ञानता के कारण यह मिथ्यात्व पड़ा रहता है। ___अश्रद्धा के दो अर्थ हैं । १) विपरीत श्रद्धा और, २) श्रद्धा का अभाव । पहले के तीन मिथ्यात्व, विपरीत श्रद्धारूप अश्रद्धावाले हैं। चौथे सांशयिक मिथ्यात्व में श्रद्धा-अश्रद्धा "मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान ३८३

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