Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 448
________________ कि नहीं ? और शाब्दिक स्वरूप मात्र से माने इतने से क्या होता है ? मोक्ष प्राप्ति का उपाय भी तो मानना ही चाहिए। मोक्ष की प्राप्ति किसको होती है ? आत्मा को । इसलिए मोक्ष को मानने न मानने का आधार आत्मा को मानने न मानने पर है । यदि आत्मा को ही नहीं मानता है तो ऐसा मिथ्यात्वी मोक्ष को मानेगा ? मोक्ष कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । अस्तित्वधारक स्वतन्त्र द्रव्यरूप नहीं है । वह तो आत्मा की सर्वथा कर्मरहित अवस्था मात्र है । अतः कर्म मानना भी उतना ही अनिवार्य है । सबका आधार एक मात्र आत्मा पर हैं । अतः मुख्य रूप से केन्द्रीभूत आत्मा द्रव्य को मानना सम्यक्त्व की पहचान है । मिथ्यात्व के अभाव ही पहचान है । आस्तिकता - नास्तिकता अस्तिभूत पदार्थ जिनकी सत्ता है । जिनका अस्तित्व है ऐसे पदार्थों को जो जैसे हैं उसको वैसे ही मानना आस्तिक व्यक्ती की पहचान है । और अस्तिभूत पदार्थ आत्मादि का अस्तित्व जगत में होते हुए भी ऐसे पदार्थों को सर्वथा न मानना ही नास्तिकता कहलाती है । नास्तिकता की विचारधारावाली व्यक्ती नास्तिक कहलाती है । नास्तिक व्यक्ती निश्चितरूप से मिथ्यात्वी ही होते हैं । और मिथ्यात्वी निश्चित नास्तिक ही होते हैं । नास्तिक व्यक्ति आत्मा-परमात्मा - मोक्षादि किसी भी तत्त्वों को मानने से सर्वथा इनकार करनेवाला होता है । कहने के लिए तो वैदिक दर्शनवाले लोगों ने जैन दर्शन को भी नास्तिक कह दिया है । जैन दर्शन जो सर्वज्ञ स्थापित दर्शन है । केवलज्ञानी - सर्वज्ञों ने बताए हुए स्वरूप के आधार पर आत्मादि पदार्थों का प्रतिपादन करनेवाला है। ऐसे जैन दर्शन को नास्तिक किस आधार पर कहना ? कौनसी ऐसी नास्तिक शब्द की व्याख्या जैन दर्शन को लागू होगी ? एक भी नहीं । सिर्फ दार्शनिक क्षेत्र में द्वेष बुद्धि से गाली देने की दृष्टि से ही जैन दर्शन को नास्तिक कह सकते हो अन्यथा कोई विकल्प नहीं है । जैन दर्शन को नास्तिक कहना अर्थात् सर्वज्ञ के सिद्धान्त को नास्तिक कहने जैसा है । सर्वज्ञ - सर्वदर्शी जो अनन्तज्ञानी परमात्मा है ऐसे परमात्मा के वचन जो त्रैकालिक शाश्वत सिद्धान्त स्वरूप हैं उनको नास्तिक की मुहर लगानी इससे बडी अज्ञानता और क्या हो सकती है ? अस्तिभूत पदार्थ जिनकां अस्तित्व है ऐसे आत्मा से लेकर मोक्ष तक के सभी विषयों को मानना वैसी मानने की दृष्टि मति रखना ही आस्तिकता है । अतः जैन आत्मा-परमात्मा-, स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, पूर्वजन्म – पुनर्जन्म, कर्म-बंध - क्षय, " मिध्यात्व" - 3 प्रथम गुणस्थान ३८७

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