Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 450
________________ रेडियो, टेलिफोन आदि साधनों से शब्द - ध्वनि - वर्णादि की पौलिकता सिद्ध होती है यह सही है । और इसमें शब्द - ध्वनि तरंगें तथा वर्णादि पुद्गल - परमाणु स्वरूप में थे ही वैसे, है ही उस स्वरूप के । अतः विज्ञान ने यन्त्रों से उनका ग्रहण किया और पुनः निस्तार किया । इसमें कोई आश्चर्य है ही नहीं। जो जैसा था उसे वैसे स्वरूप में प्रकट किया है । हाँ, प्रयोगात्मक माध्यम से यन्त्रों की सहायता से उन परमाणुओं को ग्रहण करना - विसर्जन करना आदि प्रक्रिया द्वारा जगत् के सामने उपयोगी यन्त्र सामग्री के रूप में बडी तादात में देना आदि द्वारा जिस कार्यक्षेत्र का विस्तार किया है वह जरूर सभी के लिए दृश्य है I 1 वैदिक मीमासकादि दर्शनों के पास जैनों को नास्तिक कहने के लिए आधारभूत प्रामाणिक कोई युक्ती नहीं बची... तब उन्होंने ये कह दिया कि ये जैन हमारे वेदों को नहीं मानते हैं, वेदबाह्य हैं, वेदनिंदक हैं, वेदप्रतिपादित तत्वों को नहीं मानते हैं इसलिए जैन नास्तिक हैं । “नास्तिको वेदनिंदकः” ऐसी व्याख्या जो सर्वथा मनघडन्त है इसके आधार पर जैनों को नास्तिक कह दिया । अरे ! सर्वसामान्य मनुष्य भी जिसको स्पष्ट रूप से समझ सकता है कि ... न दिखाई देते हुए भी आत्मादि अदृश्य पदार्थों को ज्ञानगम्य रूप में भी यथार्थ मानना स्वीकारना इसी पर आस्तिकता का आधार है । ठीक इससे विपरीत आत्मा-परमात्मा–मोक्षादि तत्त्वभूत पदार्थों का अस्तित्व होते हुए भी न माननेवाले सर्वथा नास्तिक कहलाते हैं । यह व्याख्या ही सर्वथा सही व्याख्या है । इस व्याख्यानुसार चार्वाक लोकायतिक दर्शनवादी ही सच्चे नास्तिक रहते हैं। क्योंकि वे तो ढोल पीटकर खुल्ले आम कह रहे हैं कि .. आत्मा-परमात्मा - मोक्षादि किसी भी अदृश्य तत्त्वों का अस्तित्व जगत् में है ही नहीं । अतः खाओ पीओ और मौज करो । यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः il नास्तिकवादी चार्वाक् कहते हैं कि अरे ! जब तक जीओ तब तक सुख-चैन से जीओ । मृत्यु के पश्चात् अगोचर तत्त्व कुछ भी नहीं है । जलकर नष्ट हुए देह के पश्चात् वापिस आनेवाला कोई नहीं है । स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः। नैव वर्णाश्रमादीनं क्रियाश्च फलदायिकाः ।। नास्तिकवादी स्पष्ट कहते हैं कि.. न तो कोई स्वर्ग है और न ही कोई मोक्ष है । न ही कोई आत्मा है और न ही कोई लोक-परलोक है । इस तरह आत्मा से लेकर मोक्ष तक "मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान - ३८९

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