Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 408
________________ कह देंगे इतना ही न? तो इससे आपको ज्यादा सजा मिलेगी? या पाप करने के बाद उसके उदय में आने से... जो नरकादि दुर्गति प्राप्त होगी वह उससे बड़ा नुकसान होगा। कितने वर्षों तक या शायद कितने भवों तक आपका अधःपतन होगा? इसका विचार करिए । तब आपको पता चलेगा कि किससे नुकसान की संभावना ज्यादा है ? अतः फिर लक्ष्य बदलिए । पाप करते हुए कोई देख ले उससे ज्यादा पाप कर्म के करने से नुकसान हजारों गुना ज्यादा होता है । सम्यक्दृष्टि जीवों का लक्षण है कि वे पाप से डरते हैं। और मिथ्यादृष्टि जीवों की वृत्ति पाप करते हुए कोई देख ले उनसे डरना। मिथ्यात्व का स्वरूप १८ पापस्थानों में १८ वाँ पाप बडा ही भयंकर पापंस्थान है । आखिर यह मिथ्यात्व क्या है ? कैसा है ? इसका स्वरूप क्या है? इत्यादि सब बातों का विचार करना जरूरी है । जिससे मिथ्यात्व का ख्याल आ जाय । मिथ्यात्व का लक्षण बताते हुए इस प्रकार कहा गया है- “मिथ्यात्वमोहनीयकर्मपुद्गलसाचिव्यविशेषादात्मपरिणामविशेषरूपत्त्वं मिथ्यात्वस्य लक्षणम्।" मिथ्यात्व मोहनीय रूप कर्म पुद्गल की प्रधानता के कारण आत्मा के जो परिणाम विशेष बनते हैं उसे मिथ्यात्व कहते हैं । इस लक्षण के आधार पर मोहनीय कर्म का स्वरूप समझना अनिवार्य लगता है। मोहनीय कर्म का स्वरूप हम आगे आत्मा के स्वरूप के बारे में काफी विचार कर आए हैं। इसी तरह आत्मा पर लगनेवाले सभी कर्मों का भी विचार कर आए हैं। चेतनात्मा है तो कर्म है और संसार में कर्म है तो आत्मा है । अन्योन्य सिद्ध है। क्योंकि आत्मा के बिना कर्म अन्य किसी को लगते ही नहीं है। अतः कर्म जिसको लगते हैं उसे आत्मा कहते हैं । इस तरह कर्म से भी संसार में आत्मा द्रव्य की सिद्धि होती है । और इसी तरह आत्मा के कारण कर्मों की भी सिद्धि होती है। संसार में प्रत्येक आत्माएं कर्म उपार्जन करती हैं। बिना कर्म बांधे कोई जीव संसार में रहता नहीं है । इसलिए कर्म के कर्ता को आत्मा कहते हुए आत्मा का लक्षण करते हुए पू. हरिभद्रसूरि म. फरमाते हैं कि यः कर्ता कर्म भेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः ।। "मिथ्यात्व" -प्रथम गुणस्थान ३४७

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