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दर्शन कहे जा सकते हैं अन्यथा फिर मिथ्यात्वी दर्शन कहना पडेगा। सर्वज्ञ कथित सत्य सिद्धान्त ही स्याद्वाद की सप्तभंगी की कसोटी की परीक्षा पर खरा उतर सकता है । ऐसा सप्तभंगी की कसोटी पर से पास होकर उतरने वाला सर्वज्ञ केवली का वचन कभी भी असत्य–मिथ्या हो नहीं सकता है । नयाभास या दुर्नय हो ही नहीं सकता है। उसे मिथ्या नहीं कह सकते हैं, अपितु सर्वथा सत्य ही कह सकते हैं । इस तरह दार्शनिक विचारधारा का मुख्य कार्य है पदार्थ का चरम सत्यरूप त्रैकालिक सिद्धान्त जगत् को देना । अन्यथा किसी को गलत-सर्वथा मिथ्या दर्शन कहने की आपत्ति आएगी।
अवधूत योगी आनन्दघनजी महाराज ने भक्ती की मस्ती में मस्त बनकर गाते हुए श्री नमिनाथ भगवान के स्तवन में इस प्रकार की पंक्तियाँ लिखी हैं
षट् दरिसण जिन अंग भणीजे, न्याय षडंग जो साधे रे। नमि जिनवरना चरण-उपासक षड्दरिसन आराधे रे
॥१॥ जिन सुरपादप पाय वखाणुं सांख्य जोग दोय भेदे रे । आतमसत्ता विवरण करतां लहो दुग अंग अखेदे रे
।। २॥ भेद-अभेद सौगत मीमांसक जिनवर दोय करी भारी रे । लोकालोक अवलंबन भजीये गुरुगमथी अवधारी रे ॥३॥ लोकायतिक कुछ जिनवरनी अंश विचारी जो कीजे रे। तत्त्वविचार सुधारसधारा गुरुगम विण किम पीजे रे जैन जिनेश्वर वर उत्तम अंग अंतरंग बहिरंगे रे। अक्षरन्यासधरा आराधक आराधे धरी संगे रे जिनवर मां सघलां दरिसण छे, दरिसणमां जिनवर भजना रे।
सागरमां सघली तटिनी सही, तटिनीमां सागर भजना रे ॥६॥ छ दर्शन सब सर्वज्ञ-जिनेश्वर के ही दर्शन के अंगरूप हैं । जैसे हमारे पूरे शरीर के हाथ-पैर अंगुलियाँ आदि एक एक अंग हैं, वे पूर्ण शरीर तो नहीं हैं। उसी तरह सभी दर्शन सर्वज्ञ जिनेश्वर के दर्शन के एक-एक अंग हैं । वे अपने आप में पूर्ण दर्शन नहीं बन सकते हैं । एकान्त विचारधारा के कारण । नमि जिनेश्वर भगवान के चरणों की अर्थात् उनके सिद्धान्त की उपासना करने से ही छहों दर्शन-सभी दर्शन की सामूहिक पूर्ण उपासना होगी । इसलिए यहाँ पर जिनेश्वर पूर्ण पुरुष सर्वज्ञ के छह अंगों पर छह दर्शनों का न्यास (स्थापना) करते हुए बता रहे हैं कि छहों दर्शनों की सम्मिलित उपासना जिनेश्वर नमिनाथ
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"मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान
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