Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 434
________________ है । उदाहरणार्थ “ तातस्य कुपोयमिति ब्रुवाण: कापुरुषाः क्षारं जलं पिबन्ति” “यह मेरे बाप का कुआ है” ऐसे बोलनेवाले कायर पुरुष खारा पानी पीते रहते हैं । अन्यत्र मीठा पेय जल मिलने पर भी अपने हढाग्रह के कारण खारा पानी पीते रहना, और मीठा पानी पीने न जाना, यह अभिग्रहिक मति है । ठीक ऐसे ही हिंसाचारादि में धर्मबुद्धि मानकर उसे करते रहना, परन्तु अहिंसा के धर्म को न अपनाना, जैसे गाय को गोमाता मानकर, उसमें ३३ करोड़ देवताओं का वास मानकर, उसकी पूजा भी करना, और यज्ञ-याग - होम-हवन में उसका वध करने की हिंसा को भी धर्म मानने की बुद्धि यह सम्यग् कैसे हो सकती है ? अश्वमेध यज्ञ या पशु पुरोडाशवाले हिंसापरक यज्ञ से स्वर्ग प्राप्ति होती है, ऐसी मान्यता कैसे समय हो सकती है ? फिर भी हमारी मान्यता हम नहीं छोड़ेंगे, ऐसा मिथ्या आग्रह अभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाता है । सारंभी - परिग्रही, कुशीलवान को भी धर्म बुद्धि से पकड़कर रखना, उन्हें ही आदर्श मानना, एवं दुराग्रह - कदाग्रहवृत्ति से जिसका विवेक रूप दीपक बुझ गया है, ऐसे अविवेकी - पाखंडी एवं पापाचार की भोगलीला चलानेवाला तथा उसे ही धर्म मानकर उसमें ही पड़े हुए एवं उसमें से बाहर न निकलनेवाले अभिग्रहिक मिथ्यात्व से ग्रसित हैं । इसमें सच्चे तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा होती है । विपरीत समझ एवं अभिग्रह पकड़ की प्राधान्यता रहती है । I २. अनभिग्रहिक मिथ्यात्व 1 न] अभिग्रहः इति अनभिग्रहः । अर्थात् पक्कड । न अभिग्रह अर्थात् जिसमें कदाग्रह – दुराग्रह नहीं है, परन्तु सच्चे - झूठे सबके प्रति समान बुद्धि है, उसे अनभिग्रहिक कहते हैं । जैसे मणि और कांच दोनों ही समान हैं। हीरा, रत्न और पत्थर सब एक सरीखे ही हैं। ऐसी ही मान्यता तत्त्व - धर्म - भगवानादि के विषय में रहती हो, उसे अनभिग्रहिक मिथ्यात्व कहते हैं । इस में किसी एक ही भगवान या धर्म का कदाग्रह न रहते हुए, सभी भगवान या धर्म के प्रति समान बुद्धि रहती है । पीलेपन के कारण सोना और पीतल सभी एक सरीखे हैं ऐसा मानना । ठीक वैसे ही कोई विशेष तुलना या परीक्षा आदि न करते हुए धर्म-भगवान—एवं तत्त्व के विषय में भी समान बुद्धि या एक सी धारणा रखना, और कहना कि सब भगवान भगवान ही तो हैं। इसलिए सभी भगवान एक ही है । जगत्पिता एक ही है । मात्र नाम भिन्न-भिन्न हैं । चाहे जो भी कोई नाम भजो भगवान - भगवान के बीच में कोई फर्क नहीं है । उसी तरह सभी धर्म एक ही हैं। धर्म कोई अलग-अलग नहीं हैं । जैसे एक शहर तक पहुँचने के अनेक रास्ते हैं । चाहे जिस रास्ते से जाओ, सभी रास्ते "मिथ्यात्व" प्रथम गुणस्थान - ३७३

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