Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 432
________________ काम-क्रोध-मोहादि वाले रागी-द्वेषी हो उनको ही भगवान मानता है । जो तीर्थंकर की कक्षा में प्रवेश ही नहीं सकते हैं, जो अरिहंत नहीं हैं उनको ही वह मिथ्यात्वी भगवान मानता है । तथा सर्वज्ञानी न हो सर्वदर्शी भी न हो तो भी उन्हें भगवान मानता है । सब तत्त्वभूत पदार्थ के केन्द्र में जो प्ररूपक परमात्मा है उनके विषय में ही विपरीत वृत्ति रखनेवाला मिथ्यात्वी की विचारधारा कैसी होगी? २) दूसरे क्रम पर भगवान के बाद गुरु का स्थान है । भगवान के ही बताए हुए मार्ग का जगत् को प्रतिपादन करनेवाले गुरु भी कैसे होने चाहिए... किसी जीव का संसार बढानेवाले नहीं होने चाहिए। भले ही सर्वथा वीतरागी न भी हो फिर भी वैरागी तो होने ही चाहिए । सर्वपापमुक्त होने ही चाहिए । गुरु स्वरूप से संसार से विरक्त-काम-मोहादि के त्यागी-तपस्वी होने ही चाहिए। लेकिन मिथ्यादृष्टि जीव ऐसे सुयोग्य गुरुओं को गुरु न मानकर उनसे सर्वथा विपरीत स्वरूपवाले रागी-द्वेषी काममोहादि में डुबे हुए ऐशआरामी-भोगविलासियों को ही गुरु मानता है। नशेबाज व्यसनियों-नशेडियों को ही गुरु मानता है । अरे ! जो हिंसादि की वृत्ति में फसे हुए हैं उनको भी गुरु मानकर पूजता है। पापाचार के त्यागी न भी हो, तपश्चर्या न भी करते हो, फिर भी पापोपदेश करनेवालों को भी मुरु मान लेता है। परिणामस्वरूप मिथ्यात्वी अपना भी बिगाडता है और दूसरों का भी अहित करता है। ३) धर्म के बारें में भी मिथ्यात्वी का रुख सर्वथा विपरीत ही होता है । मिथ्यात्वी आत्मलक्षी-आध्यात्मिक धर्म में रुची न रखता हुआ संसार बढानेवाले आरंभ-समारंभात्मक कार्य प्रवृत्ति में तथा भवभ्रमण बढानेवाले धर्म में रस लेता है । उसे ही ऊँचा धर्म मानकर चलता है। सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म को धर्म न मानकर अल्पज्ञों के मत-मतान्तर-संप्रदायों को ही परम धर्म मान लेता है । जिसके लिए सिद्धान्त का आधार कुछ भी न हो उसे ही वह धर्म मानकर चलता है। इस तरह अदेव में देव बुद्धि, अगुरु-कुगुरु में गुरु बुद्धि, तथा अधर्म–हिंसाचारादि पापप्रवृत्ति में धर्मबुद्धि मानकर चलनेवाला मिथ्यात्वी मिथ्यात्वग्रस्त होकर स्व–पर का अहित करता है । मिथ्यात्व के भेद-प्रभेद यद्यपि जीवादिपदार्थेषु तत्त्वमिति निश्चयात्मकस्य सम्यक्त्वस्य प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वं द्विविधमेव पर्यवस्यति - जीवादयो न तत्त्वमिति विपर्यासात्मकं "मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान ३७१

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