Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 421
________________ एकांश सत्य आंशिक सत्य को ही कहनेवाले और अन्यांशों का लोप-अपलाप करनेवाले दर्शन भी संसार में अनेक हैं । अन्ततोगत्वा वे आंशिक-एकांशिक सत्य को ही एकान्त बुद्धि से कहनेवाले दर्शन भी मिथ्यादर्शन बन जाते हैं। कहलाते हैं । अतः उन दर्शनों को यदि सम्यग् दर्शन-सत्य दर्शन बनना हो तो अनेकान्तवादी प्रक्रिया को अपनाना ही पडेगा । एकान्तनय को छोडकर स्याद्वाद-सप्तभंगी की शाब्दबोध पद्धति अपनाकर पदार्थ के यथार्थ संपूर्ण सत्य को ही कहना चाहिए। तभी वे सम्यग् दर्शन कहलाने योग्य बनेंगे। अन्यथा एकान्तवादी मिथ्यादर्शनी बन जाएंगे। __ पू. वादितर्कशिरोमणि आचार्य वादिदेव सूरि महाराज ने स्वरचित “प्रमाणनयतत्त्वालोक” नामक न्यायग्रन्थ में उपरोक्त रहस्य प्रकट किया है । सातवे परिच्छेद में नय और नयाभास का निरूपण करते हुए उन्होंने कौनसा दर्शन किस नय तथा नयाभास को ग्रहण करते हए कैसे मिथ्यादर्शन बने हैं? उनका स्पष्ट उल्लेख किया है। उदाहरण के लिए- १) परसंग्रह नय के आभास स्वरूप परसंग्रहनयाभासरूप विचारधारा की मान्यतावाला अद्वैत वेदान्त दर्शन कहलाता है । २) बौद्धदर्शन की शून्यवादी–क्षणिकवादी एकान्त विचारधारा यह ऋजुसूत्र नयाभास का उदाहरण स्वरूप है। सांख्यदर्शन व्यवहारनयाभास स्वरूप है । व्याकरणवादी शब्दनयाभासवादी हैं । नयाभास और दुर्नय दोनों एक ही बात है । प्रमाणनय तत्त्वालोक ग्रन्थ में पू. वादिदेव सूरिमहाराज ने सप्तम परिच्छेद में “नयाभास" शब्द का प्रयोग किया है जबकि... पू. हेमचन्द्राचार्य महाराज ने “दुर्नय” शब्द का प्रयोग किया है। आखिर अर्थभेद नहीं है। दोनों बात एक ही है। चार्वाकों का नास्तिक दर्शन यह भी सप्तभंगी की कसोटी पर खरा नहीं उतरता । अतः इसे व्यवहारनयाभास का उदाहरण बताया है । भले ही बृहस्पति का बनाया हुआ वे बता रहे हों परन्तु व्यवहारनय का. आभासमात्र दुर्नय है । बडे अच्छे वाद-विवादों में प्रवीण बनकर अनेकों को वाद विवादों में परास्त करनेवाले खुद नैयायिक-वैशेषिक दर्शनों के भी आत्मादि पदार्थों की एकान्तिक विचारणा करके वे भी अपने आप को शुद्ध सत्यवादी नहीं बना सके। और नैगमनयाभासी दिखाया। सही बात तो यह है कि एक ही नय को एकान्तदृष्टि से पकडकर प्रतिपादन करनेवाला निश्चित कहीं न कहीं मार खाता ही है । वह सत्य के सोपान से नीचे उतर ही जाता है। अतः सबको सर्वज्ञसिद्धान्त की पद्धती स्वीकारनी-अपनानी ही चाहिए। इसके बिना उद्धार ही नहीं है । जगत् के सर्व पदार्थों का यथार्थ अन्तिम सत्य जानने-समझने के लिए . . . सर्वज्ञ केवलज्ञानी का सिद्धान्त स्वीकारना ही चाहिए। तभी ऐसे सर्वज्ञवादी दर्शनों को ही... सत्यवादी-सम्यग् दर्शनी ३६० आध्यात्मिक विकास यात्रा

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