Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

Previous | Next

Page 419
________________ पाया है वही सत्य है । दूसरों का मिथ्या – असत्य है, हमारा ही सत्य है। इस दृष्टि से अन्दर अन्दर एक दूसरे को मिलकर भी, विचारों का आदान-प्रदान कर ज्ञान के अंश को पूर्ण करना ही नहीं चाहते हैं। और अपनी-अपनी मान्यता जगत को कहते फिरते हैं। इससे जगत् में कितना अज्ञान-मिथ्याज्ञान फैलेगा? इस दृष्टान्त को समझने से आपको इसका मर्म समझ में आ चुका होगा । बस, ठीक इन सात मित्रों के जैसे सात नय हैं । १) नैगमनय, २) संग्रहनय, ३) व्यवहारनय, ४) ऋजुसूत्रनय, ४) शब्दनय, ६) समभिरुढनय, और ७) एवंभूतनय । ये सात नय जैन दर्शन में प्रसिद्ध हैं। नय-नीयते, गम्यते, ज्ञायते । प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः । एक वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। अनन्तांशात्मके वस्तुनि एकोऽशः तदितरांशीदासीन्येताभिप्रायविशेषो नीयते ज्ञायते स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः । “अनन्तधर्मात्मकं वस्तु" वस्तु जो अनन्तधर्मात्मक है उसके अनेक अंशों की उदासीनता गौण करके एक अंश को ही प्राधान्य पूर्वक कहने के व्यक्ती के अभिप्राय विशेष को नय कहा गया है । अतः ये नय आंशिक सत्य को कहते हैं । संपूर्ण सत्य नहीं कह सकते हैं। क्योंकि दूसरे भी नय हैं, वे भी क्या कह रहे हैं ? उन अंशो के बारे में नहीं सोचता है, अन्य सभी अंशों को मिलाकर यदि कहे तो वस्तु का पूर्ण सत्य प्राप्त हो जाय । परन्तु ये सभी एक एक नयवादी दूसरे के नयों की अपेक्षा ही नहीं रखते हैं। वे अपना-अपना स्वतंत्र-एक एक मत को ही देखते हैं, कहते हैं। अन्य नयों की अपेक्षा ही नहीं करते हैं, अतः ये सापेक्षवादी नहीं हैं । निरपेक्षवादी हैं। अतः एकान्तवादी होते हैं। एकान्तवादी सभी मिथ्यात्वी कहलाते हैं। क्योंकि संपूर्ण सत्य को सर्वांशों से सत्यरूप नहीं जानते हैं। लेकिन वस्तु के एक ही अंश को सत्य कहते हैं, मानते हैं । जैसे शरीर के एक अंग-अंगुली मात्र को ही शरीर कहे, लेकिन सभी अंगों-हाथ-पैरादि अंगों को मिलाकर पूर्ण शरीर कहने के लिए तैयार नहीं हैं । अतः एकान्तवादी एकांगवादी कहलाते हैं । नयवादी इसी कारण सत्य के एकांश को ही सत्य कहनेवाले और अन्य अंशों का सर्वथा अपलाप करनेवाले मिथ्यात्वी कहलाते हैं। अनेकान्तवादी ही सत्यवादी होते हैं अनेके अन्ताःवस्तुनः इति अनेकान्ताः “अनन्तधर्मात्मकं वस्तु” अर्थात् वस्तु–पदार्थ मात्र अनन्त धर्मात्मक है। उसके अनन्त धर्म जो होते हैं उन अनन्त ही धर्मों की विवक्षा ३५८ आध्यात्मिक विकास यात्रा

Loading...

Page Navigation
1 ... 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496